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नहीं उत्पन्न हुए तो सब मिथ्या है । मृषावाद का दोष लगता है। न हो फिर भी कहना जूठ ही हुआ न ?
उत्तर : विरति का परिणाम ही प्रव्रज्या, वह आपकी बात सत्य है, परन्तु उसका मुख्य साधन यह विधि-विधान है।
बढिया खाद आदि सब हो, फिर भी खेती निष्फल न हो ऐसा नहीं है । व्यापार में हानि हो ही नहीं, ऐसा थोड़े ही है ? फिर भी खेती और व्यापार कोई बन्द करता है ? अधिकतर ये विधि-विधान विरति के परिणाम लाने में सहायक होते हैं ।
ओघा ग्रहण करते समय कितना आनन्द होता है ? कितनी उमंग होती है, यह अनुभव-सिद्ध है।
(प्रश्न : ओघा लेते समय कितना नाचना चाहिये ?
उत्तर : थोड़ा ही । आज तो इतना नाचते हैं कि कभी गिर भी सकते हैं । क्या यह कोई नृत्य करने का मंच है ?)
विवाह के बाद जिस प्रकार पति-पत्नी के रूप में दम्पती समाज-मान्य बनते है, उस प्रकार दीक्षा-विधि के बाद साधु के रूप में समाज-मान्य बनता है ।
शपथ-विधि पूर्ण होने पर ही 'मंत्री' कहलाता है ।।
रिज़र्व बैंक के हस्ताक्षर होने के बाद 'रूपया' कहलाता है । उस प्रकार दीक्षा-विधि के बाद साधु कहलाता है। उसके कार्य से, उसकी परिणति से उसके परिणाम ज्ञात हो सकते हैं । उसे स्वयं को लगता है कि 'मैं अब विधिपूर्वक साधु बन गया हूं। मुझसे अब अकार्य नहीं होगा ।'
यह सब तो प्रत्यक्ष देखने मिलता है ।
इस कारण ही नूतन दीक्षित को उसी समय समस्त संघ वन्दन करता है । शायद भाव से परिणाम जागृत न हुए हों तो भी संघ वन्दन करता है।
व्यवहार-मार्ग इस तरह ही चलता है।
इस वन्दन से, वन्दन लेने वाले का भी उत्तरदायित्व बढ जाता है - 'ये सभी मुझे वन्दन करते हैं, तो अब मुझे उसके अनुरूप ही जीवन जीना चाहिये ।'
भरत आदि के उदाहरण यहां नहीं लिया जा सकता। वे कभी
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