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'ज्ञाननी तीक्ष्णता चरण तेह' ।
___ - देवचन्द्रजी, अध्यात्मगीता । 'जिहां लगे आतम-तत्त्वजें, लक्षण नवी जाण्युं । तिहां लगे गुणठाणुं भलुं, किम आवे ताण्युं ॥'
- यशोविजयजी गुणस्थानक खींचने से, जोर लगाने से नहीं आता, वेष पहनने से नहीं आता । उसके लिए आत्म-तत्त्व का लक्षण जानना पड़ता है ।
• संयम जीवन उत्तम प्रकार से जीने की स्कूल अर्थात् गुरुकुलवास । यह जानने के बाद भला स्कूल में कौन शिक्षा प्राप्त नहीं करेगा?
* जैन कुल में जन्म मिलने से संयम मिले ही ऐसी बात नहीं है । इस समय एक करोड जैन हों तो संयमी कितने ?
दस हजार । निन्नाणवे लाख, नब्बे हजार बाकी निकले । इनमें आत्मज्ञानी कितने ? योगसारकार कहते है : द्वित्राः । दोतीन मिल जायें तो भी बहुत हैं ।
कितना दुर्लभ है आत्म-ज्ञान ?
इन दो-तीनों में अपना नम्बर लगाना है। निराश होकर साधना छोड़नी नहीं है । लोटरी के इनाम तो दो-तीनों को ही लगते हैं, परन्तु अन्य लोग भी आशा तो रखते ही हैं न ?
. साधु को चाहिये कि वह संसार की निर्गुणता का बारबार चिन्तन करें । यह वैराग्य का उपाय है और उससे ही वैराग्य स्थिर रहता है । वैराग्य से ही विरति स्थिर रहती है ।
प्रश्न : भाव से ही विरति का परिणाम पेदा होना यही महत्त्वपूर्ण बात है। इसके लिए ही प्रयत्न करना चाहिये । विधि की कड़ाकूट किस लिए ? विधि-विधान के बिना भी मरुदेवी, भरत महाराजा
आदि को चारित्र के भाव आ गये थे । चारित्र के परिणाम के बिना तो केवलज्ञान नहीं होता । वे कोई विधि आदि करने नहीं गये थे । दूसरी बात यह है कि विधि सब कर ली, फिर भी विरति का परिणाम थोड़ा भी नहीं आया, ऐसे भी अनेक उदाहरण हैं । जैसे अंगारमर्दक, विनयरत्न आदि ।
मानो कि शिष्य में विरति के परिणाम प्रथम ही उत्पन्न हो गये हैं तो विधि-विधान की आवश्यकता क्या ? और परिणाम कहे कलापूर्णसूरि - १ ***
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