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अध्यात्मसार
'भक्तिर्भगवति धार्या' * पांच मिनिट भी यदि आपके नेत्र, हृदय आदि भगवान पर जमेंगे तो निर्मलता आयेगी, ध्यान सुलभ बनेगा ।
भगवान की भक्ति करेंगे तो भगवान हमारे बन जायेंगे। भगवान जगत् के हैं यह ठीक है, परन्तु जब तक 'मेरे भगवान' बनते नहीं हैं तब तक भक्त को सन्तोष नहीं होता ।
अंजन के समय मैं मानता हूं कि भगवान का अंजन करने वाला मैं कौन ? भगवान ने मेरा अंजन किया । अपने स्वरूप का स्मरण कराया ।
- भक्ति अर्थात् सात राजलोक दूर स्थित भगवान को हृदय में बुलाने की कला । यशोविजयजी के मन में प्रविष्ट हुए तो अपने हृदय में क्या नहीं प्रविष्ट हो सकते ? भगवान के प्रवेश के बिना तो 'पेठा' शब्द का प्रयोग नहीं किया होगा ।
दूर स्थित भगवान को जो समीप लाये वह भक्ति ।
भक्ति चुम्बक है, जो भगवान को खींच लाती है । 'तुम. पण अलगा रह्ये किम सरशे ? भक्ति भली आकर्षी
लेशे । गगने उडे दूरे पडाई, डोरी बले हाथे रही आई'
- मानविजय पतंग चाहे दूर है, डोरी हाथ में है। भगवान चाहे दूर है, भक्ति हाथ में है । डोरी हाथ में है तो पतंग कहां जायेगी ? भक्ति हृदय में है तो भगवान कहां जायेंगे ?
(कहे कलापूर्णसूरि - १ ***
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