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हम साधु और साध्वियां विहार में तीन दिन पीछे थे । अस्वास्थ्य के समाचार मिलते ही हम सुबह-शाम विहार कर के लास्ट दिन पर लंबा विहार खींच कर भरूच डॉ. शाह की होस्पिटल में दोपहर १.०० बजे वै. सु. १३ को आ पहूंचे ।
मां महाराज के मुंह की प्रसन्नता और समता के दर्शन कर के हम आनंदित हुए और मां महाराज ने भी हमारी साता पूछी, १०-१५ मिनिट तक बहुत अच्छी तरह से हमारे साथ बात की और संतोष पाये ।
"तुम्हें कोई चिन्ता-टेन्शन है ? कोई तकलीफ है ?' हमारे पूछने पर उन्हों ने 'ना' कही। फिर हमने पूछा : आपका उपयोग अरिहंत प्रभु के स्मरण में है? उन्होंने कहा : 'हां' ।
शारीरिक व्याधि में भी मानसिक समाधि सचमुच आश्चर्यजनक थी ।
श्री नवकारमंत्र के प्रथम पद के उच्चार के बाद मैंने कहा : दूसरा पद बोलोगे? तो स्वयं 'नमो सिद्धाणं' पद २३ बार बोले ।
सा. भूषणश्रीजी तथा आश्रित सभी साध्वियां वहां हाजिर थे। मैं, पं. कल्पतरुविजयजी एवं पं. कीर्तिचन्द्रविजयजी हम तीनों नवकार मंत्र, चत्तारि मंगलं पाठ और क्षमापना सूत्र सतत सुनाते रहे थे । श्रवण में उनका पूरा उपयोग था । शारीरिक तकलीफ के लिए कोई फरीयाद नहीं थी ।
सतत समाधिभाव में मग्न पू. मां महाराज की आत्मा ४०/४५ मिनिट तक श्री नवकारमंत्र के श्रवणपूर्वक शाम को ४.३० बजे देह-त्याग कर के सद्गति की ओर चली गई ।
_ मृत्यु की निकट क्षणों में श्वासोच्छ्वास की गति, संपूर्ण नाड़ीतंत्र कैसा काम करते है, कैसे धीरे-धीरे मंद होते है, यह सब नजर के सामने देखने मिला ।
हम पूरे तीन घंटे तक पू. मां महाराज के साथ रहे और उनकी समाधि में सहायक बने, उसका हमें बहुत ही संतोष हआ । सिर्फ ९९ दिन के अंतर में हमारे दोनों शिरच्छत्र चले जाने से गहरा झटका भी लगा ।