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भीम या दुर्योधन जैसा पाठ नहीं चाहिये, युधिष्ठिर जैसा पाठ चाहिये । क्रोध न करें, क्षमा प्रदान करें, यह पाठ ।
एक मत ऐसा है जो गुरु को मानता ही नहीं, आगे जाकर वह भगवान को भी छोड़ देता है । उन्हें क्रियाएं जड़ प्रतीत होती हैं । व्यवहार सब तुच्छ प्रतीत होता है ।
हमारा ज्ञान विश्व को जानने के लिए है ? दूसरों के जानने के लिए है कि स्व को जानने के लिए है ? ज्ञान दो प्रकार के हैं १. प्रदर्शक, २. प्रवर्तक । प्रदर्शक ज्ञान दिखाने का होता है । प्रवर्तक ज्ञान रत्नत्रयी में प्रवर्तन कराता है। आप किस लिए जानते हैं ? अन्य व्यक्तियों को बताने के लिए ? तो अन्य को किस प्रकार समझा सकेंगे ? नहीं उतारा हो तो दूसरे का भला किस प्रकार कर सकेंगे ? हमें वक्ता नहीं बनना है, अनुभवी बनना है। पांच सौ साधुओं में वक्ता तो एक ही होता है, शेष सब क्या निकम्मे होते है ? नहीं, स्वाध्याय, तप आदि करने वाले मुनियों के दर्शन से भी पापों का क्षय होता है । आपका सम्यक्त्व - विहीन ज्ञान भी अज्ञान बनेगा । चारित्र भी विचित्र बनेगा |
आप ही नहीं समझे हो आप ही ने जीवन में
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✿ तीर्थंकरों की अष्ट प्रातिहार्य-समवसरण आदि ऋद्धि मोज मनाने के लिए नहीं हैं । उसे तो वे ही पचा सकते हैं । हम तो थोड़ा मान मिलने पर कूदने लगते हैं, जबकि तीर्थंकर भगवान उक्त ऋद्धि के द्वारा भी पुण्य खपाते हैं । अन्तर पूर्णत: अलिप्त होता है । * रत्नाकरसूरि ने ठवणी में रत्न रखे थे । अपरिग्रह के उपदेश के समय सेठ ने पूछा, 'अच्छी तरह समझ में नहीं आ रहा ।' आत्म-निरीक्षण करने पर स्वयं की भूल समझ में आई, परिग्रहदोष का विचार आया । परिग्रह का त्याग करके शुद्ध साधु बने । फिर ‘श्रेयः श्रियां मंगलकेलिसद्म', स्वदुष्कृत गर्हा स्वरूप स्तुति की रचना की, जो आज अमूल्य गिनी जाती है । 'मंदिर छो मुक्ति तणा' उस स्तुति का गुजराती अनुवाद है
✿ मोहनीय की सात प्रकृति नष्ट हो जायें अथवा क्षयोपशम हो, तब ही आत्मा का रूप प्रतीत होता है । इसमें भी भगवान की कृपा चाहिये ।
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***** कहे कलापूर्णसूरि -