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भगवान देते है । यही विज्ञान है । गुरु चौबीसों घण्टे साथ नहीं रहते, परन्तु उनके द्वारा प्रदत्त ज्ञान एवं विवेक साथ रहता है । विवेक-चक्षु प्रदाता गुरु हैं । विज्ञान (विवेक युक्त ज्ञान) प्राप्त हो तो ही अन्य नौ पदार्थों की सार्थकता है ।'
भगवती सूत्र में कहा है - साधु के लिए प्रमाद ही आरम्भ है । गृहस्थ के लिए हिंसा आदि आरम्भ हैं, परन्तु साधु के लिए तो प्रमाद ही आरम्भ है । प्रमत्त अवस्था में (मूच्छित अवस्था में) जीव-हत्या न हो तब भी पाप लगता है, अप्रमत्त अवस्था में (अमूच्छित अवस्था में) जीवहत्या हो तो भी पाप नहीं लगता । उपयोग में रहे वही सच्चा ज्ञान है जैसे रोकड़े रूपये-सच्चे रूपये कहलाते हैं । उधार ज्ञान काम नहीं लगता । प्रतिपल उपयोग में आने वाला रोकड़ा ज्ञान चाहिये ।। _ 'जयं चरे जयं चिट्टे' इत्यादि जागृति बतानेवाले सूत्र सदा दृष्टि के समक्ष रहें तो कहीं भी आपत्ति नहीं आयेगी । जाना हुआ ज्ञान जीवन में उतारना है, मस्तिष्क में संग्रह करने के लिए नहीं है ।
निश्चय से सम्यक्त्व नहीं प्राप्त हो तब तक देहाध्यास नहीं टलता, शरीर में आत्म-बुद्धि नहीं टलती । अभी तो हम शरीर से ऊंचे नहीं आते, आत्मा की तो बात ही क्या करें ?
ऐसा निश्चय सम्यक्त्व आने के बाद सर्व विरति का भाव सतत रहता है । यदि नहीं रहे तो श्रावकत्व तो ठीक, परन्तु सम्यक्त्व भी नहीं रहेगा ।
व्यवहार की श्रद्धा व्यवहार में काम आती हैं । निश्चय की श्रद्धा निश्चय में काम आती हैं । व्यवहार में निष्णात बनने के बाद ही निश्चय में निष्णात होना चाहिये । तालाब में तैर-तैर कर दक्ष होने के बाद ही समुद्र में कूदना चाहिये । सीधी ही निश्चय में छलांग निश्चयाभास बन जाती है, प्रमाद-पोषक बनती है। ऐसे अनेक उदाहरण देखे हैं ।
सम्यक्त्व एवं ज्ञान ही भवान्तर में साथ आते हैं, चारित्र नहीं । अतः हम सम्यक्त्व एवं ज्ञान को ऐसे सुदृढ बनायें कि भवान्तर में भी वे साथ आयें ।
हमारा ज्ञान युधिष्ठिर जैसा भावित बना हुआ होना चाहिये । कहे कलापूर्णसूरि - १ ********
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