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है भगवान ? कब नहीं है भगवान ? जब आप स्मरण करें तब भगवान हाजिर है। हमारी समस्त विधियों में चारों प्रकार के (नाम आदि) तीर्थंकरों की भक्ति समाविष्ट है ।
'नमुत्थुणं' में 'जे अ अईआ' में तीनों कालों के तीर्थंकरो को वंदना है।
'नमुत्थुणं' में भावजिन की स्तुति है । उसमें आप एकाकार बनें । आपके लिए यही ध्यान बन जायेगा ।
इसीलिए साधु-साध्वी अथवा श्रावक-श्राविका को किसी अलग शिबिर की आवश्यकता ही नहीं हैं । यही ध्यान है ।
__ हमारी अविधि की बड़ी नुकशानी यही है कि परम्परा गलत पड़ती हैं। नये आदमी को यही लगता है - यह तो ऐसे ही चलता है । बातें कर सकते हैं, बैठकर कर सकते हैं, नींद ले सकते हैं, मांडली के बिना भी कर सकते हैं ।' मिथ्या परम्परा का आलम्बन देना, अत्यन्त बड़ा अपराध है ।।
कोई अपराध किया हो तो उसे मांडली से बाहर किया जाता है, परन्तु मांडली से अलग प्रतिक्रमण करके आप स्वयं मांडली से बाहर निकल जायें, यह कैसा ?
अध्यात्मसार _ 'भक्तिर्भगवति धार्या...' यदि आप भक्ति को हृदय में धारण करेंगे तो भगवान स्वयं आ ही जायेंगे । 'मुक्ति थी अधिक तुझ भक्ति मुझ मन वसी' - इसलिए ही गाया है ।
भगवान महान् है । हम वामन हैं । महान् को वामन किस प्रकार धारण कर सकता है ? घड़ा किस प्रकार सागर को अपने भीतर समाविष्ट कर सकता है ? यशोविजयजी महाराज ने कहा है -
'लघु पण हुं तुम मन नवी मार्बु, ___ जगगुरु तुमने दिलमां लावू रे,
केहने ए दीजे शाबाशी रे,
कहो श्री सुविधि जिणंद विमाशी रे. कहे कलापूर्णसूरि - १ ***
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