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गुरु - 'वंदित्ता पवेयह' 'वन्दन करके प्रवेदन करें ।' उसके बाद शिष्य खमासमण दे। यहां कितना उत्कृष्ट विनय झलकता हैं ?
शिष्य संविग्न हो । संविग्न अर्थात् भव-भीरु एवं मोक्षाभिलाषी ।
. कायोत्सर्ग संयम में सहायक महान् योग है। इसे करना है, पारना नहीं है, फिर भी यहां इस कारण पारना है कि इसके बाद की विधि करनी है । अतः 'एक नवकार का काउस्सग्ग, थोय सुनकर पारें' - यह बोलने में कोई दोष नहीं है । काउस्सग्ग करने की विधि की तरह पारने की भी विधि ही है । प्रत्युत, न पारें तो दोष लगता है।
गुरु सांस रोक कर तीन चपटी में शिष्य का अखण्ड लोच करें । यहां चपटी के लिए 'अट्टा-अष्टा' शब्द का प्रयोग हुआ है।
. प्रतिक्रमण - चैत्यवन्दन तो महान् योग हैं। उस समय बातें तो की ही कैसे जायें? योग-क्रिया का यह कितना बड़ा अपमान है? बातें तो ठीक, उपयोग भी अन्यत्र नहीं चाहिये, बैठे-बैठे प्रतिक्रमण किया, बातें की, उपयोग नहीं रखा तो हमने किया क्या ? यह योग भी यदि शुद्धता से न हो पाये, तो अन्य योग क्या करेंगे ?
अभी शशिकान्तभाई को प्रतिक्रमण का महत्त्व समझाया । गणधरों के लिए भी जो अनिवार्य है, वह क्या आपके लिए आवश्यक नहीं है ? प्रतिक्रमण छोड़ कर आप अन्य कोई ध्यान-योग कर नहीं सकते । अन्य समय में कर सकते हैं, परन्तु यह समय तो प्रतिक्रमण के लिए ही है, उसे गौण नहीं किया जा सकता ।
. श्रुतज्ञान एवं जिन दोनों एकरूप हैं - इस प्रकार 'पुक्खरवरद्दी' सूत्र में प्रतीत होता है। श्रुतज्ञान की स्तुति होते हुए भी प्रारम्भ में भगवान की स्तुति किस लिए? ऐसे प्रश्न के उत्तर में नियुक्तिकार कहते हैं - भगवान एवं श्रुतज्ञान भिन्न नहीं हैं, दोनों एक ही है।
___ 'जिनवर जिनागम एक रूपे, सेवंतां न पड़ो भव कूपे', इस प्रकार वीरविजयजी ने इसीलिए कहा हैं ।
भगवान के लिए जो द्रव्यश्रुत है (बोले हुए या लिखे हुए शब्द द्रव्यश्रुत है) वह हमारे भावश्रुत का कारण बन सकता है।
* जहां भगवान का नाम है, वहां भगवान है । भगवान की प्रतिमा हैं, भगवान के आगम हैं, वहां भगवान हैं। कहां नहीं
**** कहे कलापूर्णसूरि - १)
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