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________________ वांकी (कच्छ) चातुर्मास प्रवेश, वि.सं. २०५५ अध्यात्मसार साधक को शिक्षा २८-७-१९९९, बुधवार आषा. सु. १५ ✿ पूर्व काल में लिखने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी । गुरु के द्वारा बोला गया शिष्य को याद रह जाता था । लिखने की आवश्यकता तो बुद्धि घटने के बाद ही पड़ी । अधिक पुस्तकें, घटी हुई बुद्धि का चिन्ह है । + कठिन से कठिन ग्रन्थों के रचयिता जैन वाङ्मय में नव्य न्याय के पुरस्कर्ता उपाध्याय श्री यशोविजयजी ने सरलतम गुजराती ग्रन्थों की भी रचना की है । यह जानकर आश्चर्ययुक्त आनन्द होता है। तर्क- तीक्ष्ण उनके ग्रन्थ उनकी तीव्र बुद्धिमत्ता को तथा भक्तिमय स्तवन आदि उनके भक्तिपूर्ण मधुर हृदय को दिखाते हैं । ज्ञानसार उनकी साधना की पराकाष्ठा के रूप में उत्पन्न अनन्य कृति है । अध्यात्म-सार के अन्त में महत्त्वपूर्ण शिक्षा दी गई है । बर्तन का छिद्र जिस प्रकार भीतर रहे प्रवाही को खाली कर देता है, उस प्रकार निन्दा भी छिद्र का कार्य करती है । साधना *** ८५ कहे कलापूर्णसूरि १ ****** -
SR No.032617
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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