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का समस्त अमृत उस छिद्र में से निकल जाता है । ✿ कृष्ण को सड़ी हुई कुत्ती में भी उज्ज्वल वस्तु दिखती है । हमें तो उज्ज्वलता में भी कालिमा के दर्शन होता है । दुर्योधन मर गया परन्तु उसकी आंख हमारे भीतर जड़ी हुई अभी तक जीवित है ।
पर- निन्दा करनी अर्थात् स्व में गुण का आगमन रोकना । निन्दा करने की इच्छा हो तब 'स्व' में दृष्टि करना । मैं केसा हूं ? पू. हेमचन्द्राचार्य जैसे भी जब 'त्वन्मतामृत' कहते हों, स्वदृष्कृतों का खुला इकरार करते हो तो फिर हम किस खेत की मूली है ?
स्व
- दुष्कृतगर्हा की तीव्रता केवलज्ञान भी दिला सकती है । स्व में दुष्कृत प्रतीत हों, उसके बाद ही दूसरों में सुकृत प्रतीत होते है और उसके बाद ही उत्कृष्ट सुकृत के स्वामी के शरण में जाने का मन होता है ।
'नमो' दुष्कृतगर्हा, 'अरिहंत' सुकृत अनुमोदना, 'ताणं' शरणागति; 'नमो' : जो दुष्कृत गर्हा करता है, जो स्व को वामन गिने वही झुक सकता है । 'अरिहंत' : जो दुष्कृत गर्हा करे उसे ही अरिहंत में सुकृत की खान दिखाई देती है ।
'ताणं' और वही शरण स्वीकार कर सकता है ।
गुण देखने हों तो अन्य के और अवगुण देखने हों तो स्वयं के ही देखें । इतनी छोटी सी बात याद रह जाये तो काम हो जाये ।
(१३) 'शौचम्' पवित्रता चाहिये । पवित्रता अर्थात् निर्मलता । दूसरे उपाय से प्राप्त स्थिरता चली जायेगी । अतः सर्व प्रथम निर्मलता होनी चाहिये । निर्मलता, स्थिरता, तन्मयता यही सच्चा क्रम है । इसी क्रम से प्रभु का साक्षात्कार हो सकता है ।
निर्मलता नींव है, स्थिरता मध्यभाग है और तन्मयता शिखर है । तीनों योग की निर्मलता चाहिये ।
ब्रह्मचर्य भाव-स्नान है । ब्रह्मचर्य से बिना स्नान किये देह पवित्र बनती है । कटु एवं असत्य वचनों से वाणी अपवित्र बनती है । देह की पवित्रता सदाचार है । वाणी की निर्मलता सत्य
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***** कहे कलापूर्णसूरि - १