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में दीक्षा अंगीकार की । आज-कल वे अकेले घूमते है ।
भवाभिनन्दी को कभी दीक्षा नहीं दी जाती ।
प्रश्न : भले वह भवाभिनन्दी हो, परन्तु जिन-वचनों से यह दोष दूर हो जायेगा, तो दीक्षा देने में क्या आपत्ति है ?
उत्तर : संसार - रसिक को जिन-वचन कभी प्रिय नहीं लगते । वह धर्म करेगा तो भी सांसारिक सिद्धि के लिए ही करेगा । भारी कर्मवाले क्लिष्ट परिणामी जीवों के हृदय में जिन - वचन कदापि नहीं उतरते । मैले वस्त्र पर कभी केसरिया रंग चढेगा ? अतः ऐसे भ्रम में न रहें ।
गांधीधाम के देवजीभाई में ये समस्त गुण दृष्टिगोचर होते । वैराग्य, नम्रता, सरलता, क्षमा, भद्रिकता, दाक्षिण्य आदि गुण उनमें प्रतीत होते । जब उन्होंने धर्म प्राप्त नहीं किया था, तब भी वे किसी को खाली हाथ लौटाते नहीं थे । कहां से आये थे वे सद्गुण ? पूर्व जन्म के संस्कार !
वस्त्र को उजला करके रंगा जाता है, उस प्रकार किसी को यदि धर्म रंग से रंगना हो तो उसकी विषय- कषाय की मलिनता दूर करनी चाहिये ।
जिस व्यक्ति को विषय विष्ठा तुल्य प्रतीत हों, कषाय कड़वे ज़हर प्रतीत हों, वही व्यक्ति दीक्षा के योग्य माना जाता है ।
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भूंड़ (शूकर) विष्ठा का राग कदापि नहीं छोड़ता । भवाभिनन्दी संसार का राग कदापि नहीं छोड़ता । शूकर को पकड़कर यदि आप उसे दूधपाक, मिठाई आदि खिलाओ तो भी वह विष्ठा नहीं छोड़ेगा । उस प्रकार भवाभिनन्दी को चाहे जितना समझाओ फिर भी वह अकार्य नहीं छोड़ेगा, अवसर मिलते ही वह अकार्य कर लेगा । अत: गुणवान व्यक्ति को ही दीक्षा देनी चाहिये । सोलह गुणों में से किसी भी गुण की अपेक्षा रखे बिना यदि किसी दीक्षार्थी को दीक्षा प्रदान करेंगे तो स्व-पर का भयंकर अहित होगा ।
कहे कलापूर्णसूरि- १ ****
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