________________
साधक को भी मोह को मारने में कठिनाई पड़ती हो तो सस्पृह की तो बात ही क्या करें ? भगवान महावीर की साधना के साड़े बारह वर्ष याद करें । वह मोह को मारने का उत्कृष्ट पुरुषार्थ था ।
मोह का मूल भी मिथ्यात्व है। उसे सम्यक्त्व से जीता जा सकता है । मोह ने स्त्री को शस्त्र बनाया है । उसके लिए धन चाहिये । इसी कारण कंचन-कामिनी की दास सारी दुनिया है ।
धन का नहीं, ज्ञान का राग चाहिए । स्त्री का नहीं, प्रभु का राग चाहिए - भगवान यों सिखाते हैं ।
जीव-मैत्री एवं प्रभु-भक्ति की कला अपनाओ तो मोह की मृत्यु होती प्रतीत होगी । भगवान को अन्तर में बसाना ही मोह नष्ट करने का मुख्य उपाय है । भगवान के अतिरिक्त मोह-मृत्यु की कला अन्य किसी प्रकार से नहीं मिलेगी ।
'प्रभु-भक्ति के बिना प्रभु के वचन भी (आगम भी) मोहवृक्ष को उखाड़ नहीं सकते' ऐसा हरिभद्रसूरि का कथन है। वचनयोग तीसरा सोपान हैं । उससे पूर्व प्रीति भक्ति - योग चाहिये ।
• अप्रमाद अर्थात् ज्ञान-दशामें जागृति । इधर-उधर के विचारों में रहो तो जागते हुए भी प्रमाद है । भगवती में आठ प्रकार का प्रमाद कहा है। फिर कभी कहूंगा ।
. अविनय, आवेश, माया, छल, कपट आदि करना मोह है । दोष को दोष नहीं मानना मिथ्यात्व है । सत्रह दोषों पर यह अकेला मिथ्यात्व विजयी हो सकता है, आगे रहता है । वह हिंसा आदि को पाप के रूप में स्वीकार नहीं करता । इसीलिए मिथ्यात्व महापाप है।
* दीक्षार्थी माता-पिता के पास विनय नहीं करता हो तो यहां भी नहीं करेगा । गृहस्थ के सामान्य नियमों का पालन नहीं करनेवाला व्यक्ति यहां आकर लोकोत्तर नियमों का पालन कैसे कर सकेगा ? दीक्षार्थी घर में क्या करता था, उस की जांच करने से इस बात का ख्याल आता है ।
सांचोर का एक भाई वि. संवत् २०१६ में आधोई अध्ययन हेतु आया । वह वनवीर के घर भोजन करने गया। वहां उसने शरारत की । हमने कह दिया - 'तेरा यहां काम नहीं है।' फिर उसने अन्य समुदाय
७८
******************************
कहे