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बनते है, स्मरण रहे ।
जैन-शासन की यह लोकोत्तर दीक्षा है। इसमें थोड़ी भी गड़बड़ी हो जाये तो अत्यन्त भारी जोखिम है - इस भव में अपभ्राजना और परभव में दुर्गति । इसका उत्तरदायित्व गुरु का है ।
इतने जोखिम बताकर अब लाभ बताते है ।
गुरु शिष्य को आगमोक्त विधि से ग्रहण तथा आसेवन शिक्षा से समृद्ध बनाते हैं । वे उसे भी भव से पार उतारते हैं और स्वयं भी पार उतरते हैं । इससे मुक्ति का मार्ग भी चालु रहता है । ___उत्तम प्रकार से तैयार हुए शिष्य जैन-शासन की जो प्रभावना करते हैं, विनियोग करते हैं, उसका लाभ गुरु को प्राप्त होता है।
ज्ञान की परिणति - उपयोग बढने पर गुण - समृद्धि अवश्य बढेगी ।
वैराग्य-शतक आदि कण्ठस्थ क्यों कराये जाते हैं ? हमें पूज्य कनकसूरिजी महाराज ने ऐसे वैराग्य-वर्द्धक प्रकरण कण्ठस्थ कराये थे । कुलक संग्रह आदि भी कण्ठस्थ कराये थे ।
वाचना श्रवण करते हैं तब तक परिणति उत्तम, परन्तु उसके बाद ? कुछ हृदय में रहेगा तो ही काम लगेगा । गुरु की अनुपस्थिति में ये ही (प्रकरण ग्रन्थ) काम में आयेगा । तो ही आत्मा दोषों से बचेगी, गुण समृद्ध बनेगी । दोषों के साथ शत्रुओं की तरह युद्ध करना पड़ेगा । गुणों को मित्र मानने पड़ेगे । यदि क्षमा, नम्रता आदि दृढ होंगे तो क्रोध आदि अड़चन नहीं डाल सकेंगे । क्रोध आदि को हटाने के लिए क्षमा आदि की साधना करनी पडेगी ।
क्षमा शस्त्रं करे यस्य दुर्जनः किं करिष्यति ?
पुराणों की कथा - पांच पाण्डव विजयी होकर कृष्ण के साथ लौट रहे थे । मार्ग में हिंसक प्राणियों, भूतों आदि से युक्त वन आया । अतः सब बारी-बारी से जागते रहे । सर्व प्रथम भीम जाग रहा था तब वहां एक दैत्य आया । वह बोला : सबको खा जाउगा ।
भीम : 'युद्ध कर' ।
युद्ध हुआ । तीन प्रहर तक युद्ध चला । अन्य पाण्डवों की भी बारी आई । इन सब के साथ भी युद्ध हुआ । कृष्ण की (६० ****************************** कहे कलापूर्णसूरि - १)