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गति से विकास सम्भव हो सकता है ।
गुरु सुदृढ देहवाले से तप कराते है । यदि अशक्त व्यक्ति देखा-देखी तप करने जाये तो वे उसे रोकते हैं । यह कार्य गुरु ही कर सकते है। अपने अनुरूप करने से शिष्य भी उत्साहपूर्वक आराधना कर सकता है, मोक्ष-मार्ग में अग्रसर होने की योग्यता (विनय-विवेक-श्रद्धा-संयम में स्थिरता आदि रूप) प्राप्त करता है ।
प्रश्न : फिर नई योग्यता किस लिए जरूरी है? दीक्षा से पूर्व ही वह योग्यता देखी हुई ही थी न ?
उत्तर : रत्न में विशिष्ट पासे डालने से चमक आती है, उस तरह शिष्य में भी आराधना की चमक आती है। हीरा योग्य होने पर भी पासे नहीं डाले जायें तो चमक नहीं आती ।।
दीक्षा ग्रहण करने के बाद कुछ समय अप्रमाद रहे और उसके बाद प्रमाद आ सकता है - अध्ययन, तप आदि में । प्रमाद को दूर करने वाले गुरु हैं । निद्रा के अलावा निन्दा (विकथा) विषय, मद्यपान (मदिरापान) आदि भी प्रमाद है। उन प्रमादों से बचानेवाले गुरु है । ऐसा करने वाले ही सफल गुरु कहलाते है ।
भद्र अश्व का तो सभी दमन करते है, परन्तु शरारती अश्व का भी दमन करे तो वह सचमुच अश्वारोही है। शरारती - प्रमादी शिष्य का दमन करनेवाले ही वास्तविक गुरु हैं ।
माता-पिता आदि परिवार का परित्याग करके आने वाले शिष्य को उचित प्रकार से जो नहीं सम्हाल सके वह बड़ा अपराधी है ।
दीक्षा प्रदान करनेमें जिस प्रकार (रात्रि को बिठाना, मातापिता को समझाना, शीघ्र दीक्षा दिलवाना, शीघ्र मुहूर्त निकलवाना) शीघ्रता की जाती है, उस प्रकार दीक्षा के बाद भी सम्हाले तो कोई शिकायत नहीं रहती ।।
शीघ्रता तो इतनी करते हैं कि दीक्षा के साथ ही बड़ी दीक्षा का भी मुहूर्त चाहिये । फिर कोई सम्हालने वाला न हो तो अन्तिम शिकायत यहां आती है- इनका क्या करें ? यहां कोइ पांजरापोल तो है नहीं । शैक्ष का परिपालन उचित रीति से नहीं करे वह प्रवचन का शत्रु (प्रत्यनीक) कहलाता है ।
जैन-शासन की अपभ्राजना करनेवाले शिष्य में निमित्त गुरु
कहे
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