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बारी आने पर आवेश से आगे बढता राक्षस (दैत्य) देखकर वे समझ गये - यह क्रोध-पिशाच है ।
कृष्ण - 'तुम जैसों के साथ मैं युद्ध करता ही नहीं हूं।'
न क्रोध, न कोई प्रतिकार । राक्षस का कद घट गया । वह मच्छर जैसा हो गया । कृष्ण ने उसे पांव के नीचे दबा दिया ।
प्रातः कालमें उठे तब वे सब घायल थे । कृष्ण : मैंने तो उनका सामना ही नहीं किया ।
क्रोध का सामना करें तो वह बढ़ता ही जाता है । क्रोध करनेवाला कितना क्रोध करेगा ? कितनी गालियां देगा ? अन्त में थक जायेगा । हमें भीम नहीं, कृष्ण बनना है ।
ये क्रोध आदि पिशाच ज्ञान आदि सम्पत्ति को लूटनेवाले हैं। गुण - सम्पादन एवं दोष-निग्रह ये दो कार्य करें । दोष -क्षय तो इस भव में नहीं कर सकेंगे । दोष - निग्रह अथवा दोष - जय कर सकें तो भी पर्याप्त है। यहां का अभ्यास भवान्तर में काम लगेगा ।
जिसके संस्कार डालेंगे उसका अनुबन्ध चलेगा । जिसको सहायता देंगे उसका अनुबन्ध चलेगा । आपको किसका अनुबन्ध चलाना है ?. दोषों का अनुबन्ध अर्थात् संसार । गुणों का अनुबन्ध अर्थात् मोक्ष । निश्चय आपको करना है। यहां कोइ जबरदस्ती नहीं है, जबरदस्ती हो भी नहीं सकती । भगवान भी जबरदस्ती किसीको मोक्ष में नहीं ले जा सकते । जमालि आदि को कहां मोक्ष ले जा सके ?
सम्यकत्व चाहे न दिखाई दे, परन्तु उसके शम आदि लिङ्ग अवश्य दिखाई दें। देखो, आप में शम आदि चिन्ह हैं कि क्रोध आदि हैं ? क्रोध, मोक्ष-द्वेष, संसार-राग (नाम-यश-स्वर्ग आदि की इच्छा), निर्दयता, अश्रद्धा - ये समस्त सम्यक्त्व से ठीक विपरीत लक्षण हैं ।
सम्यक्त्व के लक्षण - मिथ्यात्व के लक्षण शम
- क्रोध संवेग
- मोक्ष-द्वेष, विभावदशा पर प्रेम निर्वेद
- संसार-राग, स्वाभाव पर द्वेष अनुकम्पा
- निर्दयता श्रद्धा
- शंका
(कहे कलापूर्णसूरि - १ ****
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