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जीव ने अब तक यही कार्य किया है । इस प्रकार पर की और स्व की हिंसा ही की है।
उदाहरणार्थ - क्रोध में आकर जैसे तैसे बोले जिससे सामनेवाले को भी क्रोध आ गया । यहां दोनों के भाव-प्राणों की हिंसा हुई ।
_ 'स्वगुण रक्षणा तेह धर्म
स्वगुण-विध्वंसना ते अधर्म' यह नैश्चयिक अर्थ है ।
अन्य की रक्षा करने में, अन्य की ही नहीं, हमारी भी रक्षा होती है । इसी लिए साधु के लिए प्रमाद ही हिंसा कहलाती हैं । हिंसा नहीं भी हुई हो, परन्तु असावधानी हो, प्रमाद हो तो हिंसा का दोष लगता ही है। 'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा'
- तत्त्वार्थसूत्र अप्रमत्त रूप से चलने में जीव कुचला जाय तो भी हिंसा नहीं है।
द्रव्य-हिंसा नजर में आती है। भाव-हिंसा नजर में नहीं आती । यही दिक्कत है ।
ऐसे तत्त्वद्रष्टा गुरु का योग प्राप्त हो तब योगावंचक की प्राप्ति होती है । काल की परिपक्ता के बाद ही इन सब की प्राप्ति होती
ऐसे सद्गुरु हमारी द्रव्य-भाव से रक्षा करते हैं, गुण सम्पन्न बनाते हैं, भगवान के साथ जोड़ देते हैं ।
* भव-भ्रमण का मूल गुणहीनता है । अतः सद्गुणों का संग्रह करें । धन-सम्पत्ति आदि तो यहीं रह जायेंगे । गुण भवान्तर में भी साथ चलते हैं । सद्गुणों के समान कोई उत्तम सम्पत्ति नहीं है । भगवान हमें गुण-सम्पत्ति प्रदान करते हैं ।
- गुरु सिर्फ श्रुतज्ञान पढ़े हुए हों, इतना ही नहीं वे उसमें उपयोगवाले होने चाहिए । जिस समय जिसकी आवश्यकता होती है वह उनकी स्मृति में आता हो । वे चरणानन्दी हों । ज्ञान की तीक्ष्णता को ही चारित्र माना है । 'ज्ञाननी तीक्ष्णता चरण तेह ।' आत्म-तत्त्व का आलम्बन लेकर उसमें रमण करे, उसका
*** कहे कलापूर्णसूरि - १)
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कहे