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तो यह जान सकेंगे कि अध्यात्मवेत्ता कैसे होते हैं ?
अध्यात्मगीता पू. देवचन्द्रजी का अद्भुत ग्रन्थ है जो अध्यात्मप्रेमियों के लिए वास्तविक गीता है । चौवीसी की तरह यह भी एक अमर कृति है । केवल ४९ श्लोक हैं । इनमें सर्व प्रथम बताया गया है कि सात नय से सिद्ध किसे कहा जाता है ?
_ 'जिणे आतमा शुद्धताए पिछाण्यो, तिणे लोक अलोक नो भाव जाण्यो', 'एगं जाणइ सो सव्वं जाणइ, सव्वं जाणइ सो एगं जाणइ ।' आचारांग सूत्र के इन पदों का भाव सहज रूप से अध्यात्म-गीता की उपर्युक्त पंक्तियों में समाविष्ट हो गया है ।
• अनादिकाल से जीव मोहाधीन हैं, वह अनुकूल विषयों का उपभोग करने के लिए आसक्तिपूर्वक आतुर है । आसक्ति से अधिकाधिक पुद्गल (कर्म) चिपकते हैं । एरंडा का तेल लगाकर यदि मिट्टी में लेटें तो क्या होगा ? इस कारण ही नियाणा का निषेध किया है । आसक्ति के बिना नियाणा नहीं होता ।।
* 'शरीर है वह मैं हूं', जब तक परकर्तृत्व का ऐसा भाव रहेगा, तब तक कर्म-बन्ध होता ही रहेगा ।
. केवल अध्ययन करने से पण्डित बना जा सकता है, परन्तु आत्मानुभवी बनने के लिए ज्ञानी बनना पड़ता है, आत्मा को वेदना पड़ता है । अध्यात्म-गीता जैसे ग्रन्थ हमें आत्मा की ओर मोड़ते हैं ।
- शुभ भावों से पुण्य बंधता है, परन्तु यदि गुण-सम्पादन करने हों, आत्म-शुद्धि करनी हो, मोक्ष प्राप्त करना हो तो शुद्धभाव चाहिये और यह सब भक्ति से ही सम्भव है ।।
. अन्य जीवों की रक्षा भी स्व-भाव-प्राण बनाये रखने के लिए ही है। जब हम विभावदशा में जाते हैं तब हम स्वयं ही भाव-हिंसक बनते हैं ।
. पर-हिंसा से हमारे भाव-प्राणों का हनन होता है और हमें दोष लगता हैं । पर-हिंसा से मरनेवाले के तो द्रव्य-प्राण ही जाते हैं, परन्तु हमारे भाव-प्राण जाते है ।
अपने गुणों को नष्ट करना स्व-भावहिंसा है। आत्म-गुणों का हिंसक भाव-हिंसक कहलाता है ।
कहे
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