________________
xxiv
रघुवंशमहाकाव्य
से कुमार (कार्तिकेय) की उत्पत्ति होगी, जो त्रिपुर का वध करेगा । अन्यथा शिशुपालवध, रावणवध की भांति वे त्रिपुरवध लिख सकते थे । इसीलिये उन्होंने प्रथम सर्ग में कह दिया
कालक्रमेणाथ तयोः प्रवृत्ते स्वरूपयोग्ये सुरतप्रसङ्गे । मनोरमं यौवनमुद्वहन्त्या गर्भोऽभवत् भूधरराजपत्न्याः ॥
विशेष ध्यान देने की बात है कि कवि ने रघुवंश की समाप्ति भी प्रग्निवर्ण की रानी के गर्भधारण करने पर ही की है । ऐतरेय ब्राह्मण का वाक्य है
" पुरुषे ह वा अयमादितो गर्भो भवति । यदेतद्रतः तदेतत्सर्वेभ्योऽङ्गेभ्यः तेजः सम्भूतमात्मानमात्मन्येव बिर्भात"
गर्भ ही परमात्मा के जीवरूप में अवतीर्ण होने की प्रथम सूचना है, अतः गर्भ को प्रथम जन्म कहा जाता है । वैदिक संस्कृति के आदर्श कालिदास इसी को सबसे बड़ा मंगल समझकर अपने दोनों महाकाव्यों की समाप्ति गर्भ धारण की सूचना से करते हैं ।
इस काव्य के प्रथम सर्ग में उमा की उत्पत्ति ( जिस प्रसङ्ग में हिमालय का सजीव वर्णन है), दूसरे में ब्रह्मसाक्षात्कार, तीसरे में कामदहन, चौथे में रति का विलाप, पांचवें में पार्वती की तपस्या का फलोदय, छठे में हिमालय द्वारा पार्वती का प्रदान, सातवें में शिवपार्वती परिणय और आठवें में सुरतवर्णन और गर्भधारण है ।
इसमें तृतीय सर्ग में शिव की समाधि का वर्णन और पंचम सर्ग के पार्वती की तपस्या का वर्णन अत्यन्त ही उदात्त और संश्लिष्ट है । अष्टम सर्ग के सुरतवर्णन को लेकर तो कालिदास स्वयं ही आलोचना का विषय बन चुके हैं ।
२. रघुवंश
आचार्य मम्मट ने काव्य का प्रयोजन बताते हुए कहा है- "काव्यं यशसेऽर्थकृते कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे --' अर्थात् काव्य की रचना यश के लिए, द्रव्यार्जन के लिए तथा मधुरतापूर्वक लोक - कल्याण का संदेश ( उपदेश ) देने के लिए होती है । केवल यश और धन के लिए रचे गए काव्य उस उच्च कोटि में नहीं पहुंच पाते जिसमें लोककल्याण का सन्देश देनेवाले काव्य । कालिदास का 'रघुवंश' भी इसी कोटि का महाकाव्य है जो केवल कालिदास की रचनाओं में ही नहीं, विश्वसाहित्य में अपना सानी नहीं रखता । कवि ने काव्य के प्रारम्भ में ही कहा