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चर्तुथ सर्ग का कथासार
अपने पिता के दिये हुए राज्य को प्राप्त करके, महाराज रघु बड़े ही तेजस्वी हो गये । इससे जो राजा रघु के पराक्रम को देखकर ईर्ष्या करते थे, अब तो उनके हृदय में आग धधक उठी। समस्त प्रजा रघु का अभिनन्दन किया । इस समय नीति विशारद अमात्यों ने रघु के सामने धर्मपक्ष तथा अधर्मपक्ष दोनों ही रखे, किन्तु रघु ने सद्धर्म पक्ष को ही स्वीकार किया । अतः रघु ने न्याय से प्रजा तथा पराक्रम से शत्रुओं को वश में कर लिया। इधर शरद् ऋतु भी मानो रघु को विजय यात्रा के लिए प्रेरित करती हुई श्रा गई और रघु ने विधिपूर्वक नीराजना नामक शांति कर्म करके तथा राजधानी की रक्षा का प्रबंध करके, दिगविजय के लिए प्रस्थान कर दिया ।
इन्द्र के तुल्य पराक्रमी रघु पहले पूर्व दिशा की ओर चले। रघु की सेना रथ तथा घोड़ों की टापों से उड़ी धूल से तथा मेघों के समान हाथियों से आकाश को पृथिवी तल और पृथिवी को आकाशसा बनाती हुई चल रही थी। आगे आगे रघु का प्रताप और प्रताप के पीछे शब्द ( होहल्ला ), इसके पीछे धूली, और सबसे पीछे सेना, इस प्रकार मानों चतुर्व्यूह बनाकर सेना जा रही थी । रघुने अपनी शक्ति से मरुस्थल को जलवाला प्रदेश और नदियों को पुल बनाकर सुगभ्य तथा घने जंगलों को काट कर साफ कर दिया था । रघु जिस राजा को जीत लेते थे, उसे पुनः वहीं का राजा बना देते थे । इस प्रकार उनका मार्ग निष्कण्डक हो रहा था ।
इस प्रकार पूर्वी राजाओं को जीतते-जीतते रघु समुद्रतीर पर पहुँचे। वहाँ सुझ देश के राजा बिना लड़ाई के ही रघु के अधीन हो