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रघुवंशमहाकाव्य रखनेवाला व्यक्ति भी इनकी रचनाओं से उतना ही आनन्दित होता है जितना एक उद्भट विद्वान् । इनके प्रत्येक पात्र का अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व है तथा उसके भाव और भाषा ठीक उसीके अनुरूप हैं। शब्दलङ्कारों और अर्थालङ्कारों में सर्वत्र सन्तुलन रखा गया है। कहीं भी शब्द-सौन्दर्य के लिये अर्थ की बलि नहीं दी गई है और न कहीं ठोकपीटकर अलंकार गढ़ने की चेष्टा की गई है। कविता के प्रवाह में नैसर्गिकता है। किसी भी शब्द, अर्थ या भाव में औचित्य का रत्तीभर उल्लंघन इनकी कविता में ढंढ़े नहीं मिल सकता।
'उपमा कालिदासस्य'
यद्यपि उक्त पद्यांश किसी माघकवि के प्रशंसक का है परन्तु इसके तथ्य को भी झुठलाया नहीं जा सकता। कालिदास की रचना में प्रायः सभी अलंकार अपने सटीक रूप में पाये जाते हैं। परन्तु उनकी उपमा केवल उपमान, उपमेय, साधारणधर्म और वाचक शब्द का समुदाय ही नहीं होती प्रत्युत एक पूरे दृश्य को व्यक्त कर देती है
स सेनां महती कर्षन् पूर्वसागरगामिनीम् । बभौ हरजटाम्रष्टां गङ्गामिव भगीरथः ॥ (रघु० ४।३२) सञ्चारिणी दीपशिखेव रात्रौ यं यं व्यतीयाय पतिवरा सा। विवर्णभावं स स भूमिपालः नरेन्द्रमार्गाट्ट इव प्रपेदे ॥ (रघु० ६।६७) मार्गाचलव्यतिकराकुलितेव सिन्धुः। शैलाधिराजतनया न ययौ न तस्थौ ॥ (कुमार०)
प्रातः कुन्दप्रसवशिथिलं जीवितं धारयथाः। (मेघ०) ऐसी सैकड़ों उपमायें कालिदास की रचना में हैं जो एक पूरे दृश्य को पाठक के सामने व्यक्त कर देती हैं। कवि ने रघुवंश का आरम्भ ही उपमा से किया है-"वागर्थाविव सम्पृक्तौ”। केवल कालिदास की उपमाओं का सम्यक् अध्ययन ही भारतीय संस्कृति के अध्ययन की जिज्ञासा शान्त करने में समर्थ है।
कालिदास की उपमाओं में सबसे बड़ी विशेषता है देश, काल और पात्र के अनुसार औचित्य का प्रतिपादन । समाधि में निरत भगवान् शंकर की उपमा में वे कहते हैं