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उपोद्घात जो स्तुति की है और 'प्रत्यक्षाभिः प्रपन्नस्तनुभिरवतु वस्ताभिरष्टाभिरीशः' कहकर इन मूर्तियों का प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होना तथा इनको धारण करनेवाली चेतन नियामक सत्ता की असन्दिग्धता सिद्ध करके एक ओर तो निरीश्वरवादी बौद्धों को वैदिक संस्कृति के पोषक बनकर कड़ी फटकार दी है, क्योंकि जो मूर्तियाँ प्रत्यक्ष हैं उन्हें अांख रहते नकारनेवाला अन्धा ही हो सकता है। दूसरी ओर, इन प्रत्यक्ष मूर्तियों के मन्दिर पश्चिम में काठियावाड़ (सोमनाथ), पूर्व में बंगाल (चन्द्रनाथ), उत्तर में नेपाल (पशुपति-यजमानमूर्ति) और सुदूर दक्षिण में अन्तिम आकाश (चिदम्बर) तक पूरे भारत राष्ट्र की अखण्डता का संकेत किया है कि समग्र भारत में फैली इन मूर्तियों की उपासना का अर्थ है देश की आध्यात्मिक एकता।
कालिदास के विचार से ब्राह्मण देश का मस्तिष्क है और क्षत्रिय उसकी विजयी भुजा। इन दोनों के परस्पर सहयोग से ही राष्ट्र प्रकाशमान हो सकता है
स बभूव दुरासदः परंर्गुरुणाथर्वविदा कृतक्रियः।
पवनाग्निसमागमो ह्ययं सहितं ब्रह्म यदस्त्रतेजसा । (रघु० ८।४) अथर्ववेत्ता ब्राह्मण गुरु वसिष्ठ द्वारा किये गये संस्कारों-वाला क्षत्रिय आज शत्रुओं के लिये दुर्धर्ष हो गया, क्योंकि अस्त्रतेज से युक्त ब्रह्मतेज ऐसे प्रदीप्त हो उठता है जैसे वायु के संयोग से अग्नि। इस प्रकार वे वर्णव्यवस्था का दृढ़ समर्थन करते हैं।
कालिदास वैदर्भी रीति के सर्वोत्तम आदर्श कवि हैं। इनकी रचनायें ललित, परिष्कृत, प्रसादपूर्ण एवं क्लिष्टता तथा कृत्रिमता से सर्वथा रहित हैं। साधारण-सी घटना को भी अपने रचना-कौशल से भव्य, मार्मिक और चमत्कारपूर्ण बना देना इनके लिये जैसे बाँये हाथ का खेल है। अस्थिपंजर कंकाल में भी प्राण फूंककर दिव्य सौन्दर्य प्रदान करने की कला में ये विश्वसाहित्य में अपना सानी नहीं रखते। व्यञ्जकता इनके काव्य की प्रथम विशेषता है। कथानक के विकास का असाधारण कौशल, सटीक चरित्रचित्रण की अद्भुत क्षमता, मानव-भावों को मूर्तरूप देकर व्यक्त करने की विलक्षण प्रतिभा और जड़ पदार्थ से भी चेतनवद् व्यवहार करा लेने का अनुपम नैपुण्य इस कवि में है। यही कारण है कि एक सामान्य ज्ञान