________________ 284 मानसारे चामरे धवलच्छत्रं बहुमालाधर(रा) स्मृतम् / मासनानां तु सर्वेषां षट्पादं परिकीर्तितम् // 24 // चक्रवर्ती विशेषेण नवमालाधरः सुखी। चामरकं ।वनाच्छत्रं चतुष्पादसमन्वितम् // 25 // क्षुद्रस्य परिपालेभ्यो मध्यश्रेष्ठस्य योग्यकम् / बहुमाता च संप्रोक्तमन्यैः क्षुद्रैस्तु वर्धिते(वक्ष्यते) // 26 // वृत्ता(स्या) सज्जननियूह (हो) मुक्ता च(क्तया) स्रग्विभूषणम् / क्षुद्र(मध्य)श्रेष्ठस्य नृपतेश्वोभे जनपदे स्मृता(ते) // 27 // अन्येभ्यो (भ्यः) क्षुद्रराजेभ्यस्त्वेकजानपदं परम् / एते तु क्षुद्रभूपालो(ला) भूपालानां तु सेवकाः // 28 // चक्रवाख्यराजोऽसौ दुर्जनानां तु नाशकः / कपालुः कृपया लोकं संरक्षति मुहुर्मुहुः // 26 // प्रथ [च] दशकैकांशं कर स्वीकृत्य तिष्ठति / महाराजः षडशे तु कर चैकं परिग्रहे(गृहीया)त् // 30 // दुर्जनानां जन ज्ञात्वा दिशि धर्मस्य पालका:(कः)। नरेन्द्रस्य(च) तु पञ्चाशं करं स्वीकृत्य राज्यति // 31 // पर्थिभ्योऽविदरिद्रेभ्यो दाता धनवतां गृहीयात् / अथ पार्णिकाख्यनृपतिः करमद्य(पाद) प्रतिगृही(ही)यात् // 32 // पट्टधरस्य समये चोक्तवत् त्रिः(त्यशं) प्रतिगृही(हीया)त् / ददाति विदुषां भूयः (श्वा)न्येभ्यः किञ्चिदेव हि // 33 // पट्टभाक् राज्य(ज्यस्य) तत्सर्व कर स्वीकृत्य तिष्ठति / देवेभ्यो ब्राह्मणेभ्योऽपि नित्य(त्यं) मान्यं करोत्यसौ // 34 // प्र(प्रा)हारकस्य(च) देशस्य कर स्वीकृत्य तिष्ठति / नीतिशास्त्रोक्तवन्न्यायमन्यायं करोत्यपि // 35 // धर्मनग्धोपकारको वामभिः(एभिश्च) कर्मभिः दृढः / मसपाहः स्वराज्यस्य न्यायाजमाह(द्गृह्णाति) तत्करम् // 26 //