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हैं । यही कर्म - परमाणुओं का आत्मा से पृथक्करण द्रव्य निर्जरा है। भाव-निर्जरा कारण रूप है और द्रव्य - निर्जरा कार्य रूप है ।
सकाम और अकाम निर्जरा- निर्जरा के ये दो प्रकार भी माने गये हैं - १. कर्म जितनी काल - मर्यादा के साथ बँधा है, उसके समाप्त हो जाने पर अपना विपाक (फल) देकर आत्मा से अलग हो जाता है, यह यथाकाल - निर्जरा है। इसे सविपाक अकाम और अनौपक्रमिक निर्जरा भी कहते हैं। इसे सविपाक निर्जरा इसलिए कहते हैं कि इसमें कर्म अपना विपाक देकर अलग होता है अर्थात् इसमें फलोदय ( विपाकोदय) होता है। इसे अकाम निर्जरा इस आधार पर कहा गया है कि इसमें कर्म के अलग करने में शक्ति के संकल्प का तत्त्व नहीं होता । उपक्रम शब्द प्रयास के अर्थ में आता है, इसमें वैयक्तिक प्रयास का अभाव होता है, अत: इसे अनौपक्रमिक भी कहा जाता है। यह एक प्रकार से विपाक - अवधि के आने पर अपना फल देकर स्वभाविक रूप में कर्म का अलग हो जाना है।
२. तपस्या के माध्यम से कर्मों को उनके फल देने के समय के पूर्व अर्थात् उनकी कालस्थिति परिपक्व होने के पहिले ही प्रदेशोदय के द्वारा भोगकर बलात् अलग कर दिया जाता है, तो यह निर्जरा सकाम निर्जरा कही जाती है, क्योंकि निर्जरित होने में समय का तत्त्व अपनी स्थिति को पूरी नहीं करता है। इसे अविपाक निर्जरा भी कहते हैं, क्योंकि इसमें विपाकोदय या फलोदय नहीं होता है, मात्र प्रदेशोदय होता है । विपाकोदय और प्रदेशोदय के अन्तर को एक उदाहरण से समझा जा सकता है। जब क्लोरोफार्म सुंघाकर किसी व्यक्ति की चीर-फाड़ की जाती है तो उसमें उसे असातावेदनीय (दुःखानुभूति) नामक कर्म का प्रदेशोदय होता है, लेकिन विपाकोदय नहीं होता है । उसमें दु:खद वेदना के तथ्य तो उपस्थित होते हैं, लेकिन दुःखद वेदना की अनुभूति नहीं है । इसी प्रकार प्रदेशोदय कर्म के फल का तथ्य तो उपस्थित हो जाता है, लेकिन उसकी फलानुभूति नहीं होती है । अतः वह अविपाका निर्जरा कही जाती है। इसे सकाम निर्जरा भी कहते हैं, क्योंकि इसमें कर्म - परमाणुओं को आत्मा से अलग
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जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त