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हुआ है और यदि वह इन सबको स्वीकार न करे तो वह उस दशा में पशु से भी हीन होगा। ___ इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि मर्यादाओं का पालन अनिवार्य है। सभी मर्यादाओं का पालन करना संयम नहीं है, लेकिन यदि मर्यादाओं का पालन स्वेच्छा से किया जाता है तो उनके पीछे अव्यक्त रूप में संयम का भाव निहित रहता है। सामान्यतया वे ही मर्यादाएँ संयम कहलाती हैं जिनके द्वारा व्यक्ति आत्मविकास और परमसाध्य की प्राप्ति करता है। ६. निर्जरा
आत्मा के साथ कर्म-पुद्गलों का सम्बद्ध होना बंध है और आत्मा से कर्म-वर्गणाओं का अलग होना निर्जरा है। नवीन आने वाले कर्म-पुद्गलों को रोकना (संवर) है, परन्तु मात्र संवर से निर्वाण की प्राप्ति संभव नहीं। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि किसी बड़े तालाब के जल स्रोतों (पानी को आगमन के द्वारों) को बन्द कर दिया जाए और उसके अन्दर रहे हुए जल को उलीचा जाय और ताप से सुखाया जाए तो वह विस्तीर्ण तालाब भी सूख जाएगा।" इस रूपक में आत्मा ही सरोवर है, कर्म पानी है, कर्म ही पानी का आगमन है। उस पानी के आगमन के द्वारों को निरुद्ध कर देना संवर है और पानी का उलीचना और सुखाना निर्जरा है। यह रूपक यह बताता है कि "संवर से नये कम रूपी जल का आगमन (आस्रव) तो रुक जाता है, लेकिन पूर्व में बंधे हुए, सत्तारूप कर्मों का जल जो आत्मारूपी तालाब में शेष है, उसे सुखाना ही निर्जरा है।
द्रव्य और भाव रूप निर्जरा- निर्जरा शब्द का अर्थ है जर्जरित कर देना, झाड़ देना अर्थात् आत्म-तत्त्व से कर्म-पुद्गलों का अलग हो जाना अथवा अलग कर देना निर्जरा है। यह निर्जरा दो प्रकार की है। आत्मा का वह चैत्तसिक अवस्था रूप-हेतु जिसके द्वारा कर्म-पुद्गल अपना फल देकर अलग हो जाते हैं, भाव-निर्जरा कहा जाता है। भाव-निर्जरा आत्मा की वह विशुद्ध अवस्था है जिसके कारण कर्म-परमाणु आत्मा से अलग हो जाते बन्धन से मुक्ति की ओर (संवर और निर्जरा)
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