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पुनर्जन्म उत्पादक कर्म की दृष्टि से कम्मभव और उप्पत्तिभव का विचार अवश्य उपलब्ध है। प्रतीत्यसमुत्पाद की १२ कड़ियों में अविद्या, संस्कार, तृष्णा, उपादान और भव पाँच कम्मभव हैं । इनके कारण जन्म-मरण की परम्परा का प्रवाह चलता रहता है। शेष विज्ञान, नामरूप, षडायतन, स्पर्श, वेदना, जाति और जरामरण उत्पत्तिभव हैं, जो अपनी उदय या विपाक अवस्था में नये बन्धन का सृजन नहीं करते हैं । कम्मभव में अविद्या और संस्कार भूतकालीन जीवन के अर्जित कर्म - संस्कार या चेतना - संस्कार हैं । ये संकलित होकर विपाक के रूप में हमारे वर्तमान जीवन के उत्पत्तिभव (विज्ञान, नामरूप, षडायतन, स्पर्श और वेदना) का निश्चय करते हैं। तत्पश्चात् वर्तमान जीवन के तृष्णा, उपादान और भव स्वयं कम्मभव के रूप में भावी जीवन के उत्पत्तिभव के रूप में जाति और जरामरण का निश्चय करते हैं। वर्तमान जीवन के तृष्णा, उपादान और भव भावी - जीवन के अविद्या और संस्कार बन जाते हैं और वर्तमान में भावी जीवन के लिए निश्चित हुए जाति और जरामरण भावी जीवन में विज्ञान, नामरूप और षडायतन के कारण होते हैं। इस प्रकार कम्मभव रचनात्मक कर्म शक्ति के रूप में जैन-दर्शन के मोह-कर्म के समान जन्म-मरण की श्रृंखला का सर्जक है और उत्पत्ति-भव शेष निष्क्रिय कर्म अवस्थाओं के समान है, जो मोहकर्म या कम्मभव के अभाव में जन्म-मरण की परम्परा के प्रवाह को बनाये रखने में असमर्थ है। इस प्रकार बौद्ध दर्शन का कर्मभव जैनदर्शन में मोह - कर्म से और उत्पत्ति-भव जैन विचारणा की शेष कर्म अवस्थाओं के समान है। इसे निम्न तुलनात्मक तालिका से स्पष्ट किया जा सकता है
कम्मभव
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बौद्ध परम्परा
१. अविद्या
२. संस्कार
३. तृष्णा
जैन परम्परा
मोहकर्म की सत्ता की अवस्था
मोहकर्म की विपाक और नवीन बन्ध
जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त