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से, अपुण्याभिसंस्कार पाप-बन्ध से और अन्योन्याभिसंस्कार पुण्यानुबन्धी पाप या पापानुबन्धी पुण्य से तुलनीय है ।
३. विज्ञान - प्रतीत्यसमुत्पाद की तीसरी कड़ी विज्ञान (चेतना) है, जो संस्कारजन्य है। विज्ञान का तात्पर्य उन चित्त-धाराओं से है जो पूर्वजन्म में किये हुए कुशल अकुशल कर्मों के विपाकरूप इस जन्म में प्रकट होती हैं और जिनके कारण मनुष्य को ऐन्द्रिक संवेदन एवं अनुभूति होती है अर्थात् विज्ञान इन्द्रियों की ज्ञान-सम्बन्धी चेतन क्षमता का आधार एवं निर्धारक है। इस प्रकार विज्ञान जैन - परम्परा के ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म से तुलनीय है । पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ तथा मन ये छह विज्ञान के प्रकार हैं ।
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४. नाम-रूप- नाम-रूप का प्रतीत्यसमुत्पाद में चौथा स्थान है। नाम-रूप का हेतु विज्ञान (चेतना) है। बौद्ध दर्शन में समस्त जगत्- रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान, इन पंचस्कन्धों से निर्मित है। प्रथम रूपस्कन्ध को रूप और शेष चारों स्कन्धों को नाम कहा जाता है। रूप भौतिक और नाम चेतन है । मिलिन्दप्रश्न में नागसेन लिखते हैं कि जितनी स्थूल चीजें हैं वे सभी रूप हैं और जितनी सूक्ष्म मानसिक अवस्थाएँ हैं वे नाम हैं। पृथ्वी, अग्नि, पानी और वायु ये चारों महाभूत और इनसे प्रत्युत्पन्न सभी वस्तुएँ एवं शरीरादि रूप कही जाती हैं, जबकि वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान ये चारों नाम कहे जाते हैं। नाम - जैन- विचारणा के आयुष्य कर्म, गतिनामकर्म और शरीर - नामकर्म की संयुक्त अवस्था से तुलनीय हैं।
५. षडायतन- षडायतन से तात्पर्य चक्षु, घ्राण, श्रवण, रसना और स्पर्श इन पाँच इन्द्रियों एवं छठे मन से है । षडायतन का कारण नामरूप है। तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर व्यक्ति के सन्दर्भ में नामरूप और षडायतन जैन- दर्शन के नाम-कर्म के समान है, क्योंकि जैनदर्शन में नामकर्म और बौद्ध दर्शन में नाम - रूप तथा षडायतन वैयक्तिकता के निर्धारक हैं और ये दोनों ही समान हैं ।
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जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त