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कोई प्रत्यय, हेतु या कारण अवश्य होता है। यदि प्रत्येक उत्पाद सहेतुक है तो फिर हमारे बन्धन या दुःख का भी कोई हेतु अवश्य होगा। प्रतीत्यसमुत्पाद हमारे बन्धन या दुःख की निम्न १२ अंगों में कार्यकारणात्मक व्याख्या प्रस्तुत करता है।
१. अविद्या- प्रतीत्यसमुत्पाद की प्रथम कड़ी अविद्या है। बौद्धदर्शन में अविद्या का अर्थ है दुःख, दुःख समुदय, दुःख-निरोध और दुःख निरोधमार्ग रूपी चार आर्यसत्य सम्बन्धी अज्ञान। अविद्या का हेतु आस्रव है, आस्रवों के समुदय से अविद्या का समुदय होता है और अविद्या के कारण ही जन्म-मरण परम्परा का संसरण होता है। इस प्रकार बौद्ध-दर्शन में अविद्या संसार में आवागमन (बन्धन) का मूलाधार है। तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाये तो अविद्या जैन-परम्परा के दर्शन-मोह के समान है। दोनों के अनुसार यह एक आध्यात्मिक अन्धता या सम्यक्-दृष्टिकोण का अभाव है। दोनों ही इस बात में सहमत हैं कि अविद्या या दर्शन-मोह दुःख, बन्धन एवं अनैतिक आचरण का प्रमुख कारण है। दोनों ही परम्पराएँ अविद्या या दर्शन मोह को अनादि मानते हुए भी अहेतुक या अकारण नहीं मानती हैं, जैसा कि सांख्य दर्शन में माना गया है। बौद्ध-परम्परा में अविद्या और तृष्णा में तथा जैन-परम्परा में दर्शन-मोह और चारित्र-मोह में पारस्परिक कार्य-करण सम्बन्ध माना गया है। इस प्रकार अविद्या या दर्शन-मोह अहेतुक नहीं है, उसका हेतु तृष्णा या चारित्र मोह है।
२. संस्कार- प्रतीत्यसमुत्पाद की दूसरी कड़ी संस्कार है। कुशलअकुशल कायिक, वाचिक और मानसिक चेतनाएँ, जो जन्म-मरण परम्परा का कारण बनती हैं, संस्कार कही जाती हैं। संस्कार एक प्रकार से मानसिक वासना है जो अविद्याजन्य है। संस्कार तीन प्रकार के हैं- १. पुण्याभिसंस्कार, २. अपुण्याभि-संस्कार, ३. अन्योन्याभिसंस्कार। ये संस्कार जैन परम्परा के चारित्र-मोह से तुलनीय हैं। पुण्याभिसंस्कार पुण्य-बन्ध
कर्म-बन्ध के कारण, स्वरूप एवं प्रक्रिया
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