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आकस्मिक । क्रमिक भोग में स्वाभाविक रूप से आयु का भोग धीरे-धीरे होता रहता है, जबकि आकस्मिक भोग में किसी कारण के उपस्थित हो जाने पर आयु एक साथ ही भोग ली जाती है। इसे ही आकस्मिकमरण या अकाल मृत्यु कहते है । स्थानांगसूत्र में इसके सात कारण बताये गये हैं - १. हर्ष - शोक का अतिरेक, २. विष अथवा शस्त्र का प्रयोग, ३. आहार की अत्यधिकता अथवा सर्वथा - अभाव ४. व्याधिजनित तीव्र वेदना, ५. आघात ६. सर्पदशांदि और ७. श्वॉस - निरोध 162
६. नाम कर्म
जिस प्रकार चित्रकार विभिन्न रंगों से अनेक प्रकार के चित्र बनाता है, उसी प्रकार नाम - कर्म विभिन्न परमाणुओं से जगत् के प्राणियों के शरीर की रचना करता है । मनोविज्ञान की भाषा में नाम-कर्म को व्यक्तित्व का निर्धारक तत्त्व कह सकते हैं। जैन-दर्शन में व्यक्तित्व के निर्धारक तत्त्वों को नाम कर्म की प्रकृति के रूप में जाना जाता है, जिनकी संख्या १०३ मानी गई है लेकिन विस्तारमय से उनका वर्णन सम्भव नहीं है । उपर्युक्त सारे वर्गीकरण का संक्षिप्त रूप है- १. शुभनामकर्म (अच्छा व्यक्तित्व) और २. अशुभनामकर्म ( बुरा व्यक्तित्व) । प्राणी - जगत् में जो आश्चर्यजनक वैचित्र्य दिखाई देता है, उसका प्रमुख कारण नाम - कर्म है।
शुभनाम कर्म के बन्ध के कारण- जैनागमों में अच्छे व्यक्तित्व की उपलब्धि के चार कारण माने गये हैं- १. शरीर की सरलता, २ . वाणी की सरलता, ३. मन या विचारों की सरलता, ४. अहंकार एवं मात्सर्य से रहित होना या सामञ्जस्य पूर्ण जीवन 163
शुभनामकर्म का विपाक - उपर्युक्त चार प्रकार के शुभाचरण से प्राप्त शुभ व्यक्तित्व का विपाक १४ प्रकार का माना गया है- १. अधिकारपूर्ण प्रभावक वाणी (इष्ट शब्द), २. सुन्दर सुगठित शरीर (इष्ट रूप), ३. शरीर से निःसृत होने वाले मलों में भी सुगन्धि (इष्ट गंध), ४. जैवीय रसों की समुचितता ( इष्ट रस ), ५. त्वचा का सुकोमल होना कर्म- -बन्ध के कारण, स्वरूप एवं प्रक्रिया
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