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३. मनुष्य, पशु आदि का वध करना, ४. मांसाहार और शराब आदि नशीले पदार्थों का सेवन।
(ब) पाश्विक जीवन की प्राप्ति के चार कारण- १. कपट करना, २. रहस्यपूर्ण कपट करना, ३. असत्य भाषण, ४. कम-ज्यादा तोल-माप करना। कर्म-ग्रन्थ में प्रतिष्ठा कम होने के भय से पाप का प्रकट न करना भी तिर्यञ्च आयु के बन्ध का कारण माना गया है।" तत्त्वार्थसूत्र में माया (कपट) को ही पशु-योनि का कारण बताया है।58
(स) मानव जीवन की प्राप्ति के चार कारण- १. सरलता, २. विनयशीलता, ३. करुणा और ४. अहंकार एवं मात्सर्य से रहित होना। तत्त्वार्थसूत्र में १. अल्प आरम्भ, २. अल्प परिग्रह, ३. स्वभाव की सरलता और ४. स्वभाव की मृदुता को मनुष्य आयु के बन्ध का कारण कहा गया है।"
(द) दैवीय जीवन की प्राप्ति के चार कारण- १. सराग (सकाम) संयम का पालन, २. संयम का आंशिक पालन, ३. सकाम तपस्या (बाल तप) ४. स्वाभाविक रूप में कर्मों के निर्जरित होने से। तत्त्वार्थसूत्रं में भी यही कारण माने गये हैं। कर्म-ग्रन्थ के अनुसार अविरत सम्यक्दृष्टि मनुष्य या तिर्यंच, देशविरत श्रावक, सरागी-साधु, बाल-तपस्वी और इच्छा नहीं होते हुए भी परिस्थिति वश भूख-प्यास आदि को सहन करते हुए अकाम निर्जरा करने वाले व्यक्ति देवायु का बन्ध करते हैं।
आकस्मिकमरण- प्राणी अपने जीवनकाल में प्रत्येक क्षण आयु कर्म को भोग रहा है और प्रत्येक क्षण में आयु कर्म के परमाणु भोग के पश्चात् पृथक् होते रहते हैं। जिस समय वर्तमान आयुकर्म के पूर्वबद्ध समस्त परमाणु आत्मा से पृथक् हो जाते हैं उस समय प्राणी को वर्तमान शरीर छोड़ना पड़ता है। वर्तमान शरीर छोड़ने से पूर्व ही नवीन शरीर के आयुकर्म का बन्ध हो जाता है, लेकिन यदि आयुष्य का भोग इस प्रकार नियत है तो आकस्मिकमरण की व्याख्या क्या? इसके प्रत्युत्तर में जैनविचारकों ने आयुकर्म का भोग दो प्रकार का माना- १. क्रमिक, २. [102]
जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त