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THE INDIAN ANTIQUARY
[FEBRUARY, 1918.
यह पटतर देष्यो संसार । नील-विरष ज्यौ दहै तुसार ॥ १३ ॥ मुनि-जन हिये कमल निज टोहि । सिद्ध-रूप समस्या तोहि । कमल-कणिका विन नहि और । कमल-बीज उपजन-की और ॥१४॥ जब तुम यौन धरै मुनि कोय | तब विदेह परमात्मा होय । जैसे धात सिनातन त्यागि । कनक-सरूप धरै जब पागि ॥१५॥ जा-कै मनि तुम करै निवास । विनसि जाय क्यो" विमह तास । ज्यों महन्त विचि आवै कोय । विमह-मूल निवारै सोय ॥१४॥ करै विविध जे पाल्मा-ध्यान । तुम प्रभाव- होय निर्धान । जैसै मीर सधा अनुमानि । पीवत विष-विकार-की हानि ॥७॥ क्यों भगवन्त विमन-गुण-जीन | समज-रूप माने मति-हीम । जौ नीलिया-रोग द्विग गहै । वरन विवरन सह सी कहै ॥१८॥
दोहा
निकट रहत उपदेस मनि सर-वर भये असोक। ज्यों रवि उगतै जीव सब प्रगट होत भव-नोक ॥१६॥ समन-वृष्टि ने सुर करे हे वृन्त-मुष सोब। त्यौ तुम सेवत सुमन-जन बन्ध अधोमुष होय ॥२०॥ उपजि तुम हिये उपाधि-तै बानी सुधा-सान । जिहि पीवत भवि-जन नहे' अजर-अमर-पद-यान ॥२९॥
कर इसार तिहुँ लोक-कौ बेसुर-चामर दीया. भाव-साहित जो जिन नमै सासु गति उरच होय ॥२२॥ सिहासन गिरि मेरु सम प्रभुश्वानि गरजित घोर । स्याम सुतन धन-रूप नपि नाचत भवि-जन-मोर ।। २३ ॥ छवि-हस होहि असोक-दल तुम-भा-मएडल देषि । वीतराग-के निकट रहि रहे नैराग विसेषि ॥२५॥ सीप कहै तिलोक-को पसुर-सुन्दमि-नाद । शिव-पथ-सारयवाह जिन भज्यो तज्यो परमाद ॥ २५ ॥ तीन बत्र विभुवन उदित . . . . . . . . .
१५) ही, कीणिक (for कर्णिका), विना, नही, ओर, गेर; १५) परमात्म, धव, भाग; १८० विनिसि, ज्यो (instand of क्यो"), विगृह) '१७) विविधि, पाल्म, निर; १८)मति, ब्यौ, गह, स्यो, १९) उगता २०) वृष्टे, कैर है, पीठ ( for वृन्त), सीई, अधीमुष हारा २१) उपजी हीये, जिह, भवी; २२)सार, स्वर (for मुर), सहन, तस, होई, २३) गिर, मेरि २५) बिमा २)विभवन.
Obsorve that the carapa is faulty.