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जैन-विभूतियाँ अपनी वैष्णव परम्परा की रूढ़ियाँ नीरस व निरर्थक लगने लगी। जैन दर्शन एवं धार्मिक आचार उन्हें अधिक तर्कपूर्ण एवं कल्याणकारी लगने
लगे।
__ वे जब 18 वर्ष के थे तभी उनका विवाह हो गया। जल्द ही उनके पितामह, पिताश्री एवं अग्रज की मृत्यु हो गई। मृत्यु पूर्व पिता ने उन्हें सदैव 'नमोकार मंत्र' स्मरण रखने की शिक्षा देते हुए कहा था"आपत्ति-विपत्ति में यह तुम्हारी रक्षा करेगा, इस मंत्र की महिमा अपार है, इसमें श्रद्धा बनाए रखना।'' परिवार की जिम्मेदारी गणेश प्रसाद के किशोर कंधों पर आ पड़ी। इन मौतों से बालक का मन संसार की क्षणभंगुरता के प्रति सचेत हो गया। _गणेश प्रसाद ने आजीविकार्थ मदनपुर ग्राम में शिक्षक की नौकरी कर ली, कई मास आगरा में ट्रेनिंग ली। इस बीच उन पर माता एवं पनि का कुल धर्म न छोड़ने के लिए दबाव पड़ने लगा। परन्तु माता का स्नेह और पत्नि का अनुराग उन्हें विचलित नहीं कर पाया। जैन धर्म पर उनकी श्रद्धा डिगी. नहीं। पण्डित भोजन में सम्मिलित न होने के कारण उन्हें 'जाति बहिष्कृत' करने की धमकी दी जाने लगी। वे स्वयं ही सबसे नाता तोड़ एकाकी आत्म-साधना की राह चल पड़े।।
तभी किशोर का परिचय सिमरा निवासी जैन धर्मपरायणा चिरोंजी बाई से हुआ। प्रवचन के बाद चिरोंजी बाई के आमंत्रण पर भोजन करने के लिए किशोर गणेशप्रसाद उनके मेहमान बने। पूर्व जन्म का ही कहिए कुछ ऐसा संयोग बना कि चिरोंजी बाई को वे पुत्रवत् लगने लगे। उन्होंने गणेशप्रसाद की जीवनशैली बदल दी। गणेशप्रसाद व्रतों के पालन के लिए व्यग्र थे। चिरोंजी बाई ने उन्हें पहले ज्ञानार्जन करने के लिए प्रेरित किया। जयपुर में उनके शिक्षण की व्यवस्था कर दी गई। गणेश प्रसाद ने जयपुर प्रयाण किया पर रास्ते में ही सारा सामान चोरी हो गया। गणेश प्रसाद लौट आए पर संकोचवश चिरोंजी बाई को यह जताने की उनकी हिम्मत नहीं हुई। वे जैन तीर्थों की यात्रा पर निकल पड़े। वे मुंबई आए। वहाँ उनका परिचय पं. गोपालप्रसाद बरैया प्रभृति जैन विद्वानों से हुआ।