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जैन-विभूतियाँ
407 1867 में उन्होंने गिरनार तीर्थ के लिए संघ समायोजन किया एवं राह में आए जैन मन्दिरों के जीर्णोद्धार के लिए मुक्त हस्त दान दिया। उनके सुपुत्र सेठ टीकमचन्द उदार हृदय व्यक्ति थे। उन्होंने नशियाँजी में एक 82 फीट ऊँचे मान-स्तम्भ का निर्माण कराया। सन् 1927 में उन्होंने सम्मेद शिखर तीर्थ के लिए संघ समायोजन किया। उन्होंने पावापुरी एवं मन्दार गिरि तीर्थों पर यात्रियों के ठहरने के लिए कोठियों का निर्माण कराया। वे दिगम्बर जैन महासभा के दो बार अध्यक्ष चुने गए। जयपुर महाराजा एवं जोधपुर दरबार ने उन्हें राजकीय सम्मान बख्शे।
सेठ टीकमचन्दजी के सुपुत्र भागचन्दजी का जन्म सन् 1904 में हुआ। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा अजमेर में ही हुई। हिन्दी, संस्कृत, उर्दू एवं अंग्रेजी भाषाओं पर उनका अच्छा अधिकार था। उनका प्रथम विवाह इन्दौर के सर सेठ हुकमचन्द की सुपुत्री तारादेवी से हुआ। सेठ भागचन्द का द्वितीय विवाह बुरहानपुर के सेठ केशरीमल लुहाड़िया की पुत्री से हुआ, जिनसे दो सन्तानें - श्री निर्मलचन्द एवं श्रीसुशीलचन्द हुई। सेठ भागचन्द ने अपने बैंकिंग व्यापार के अतिरिक्त टैक्सटाईल मिल और जीनिंग फैक्टरी स्थापित की। उन्होंने खनिज एवं जवाहरात उत्पादन के क्षेत्र में भी पहल की। देश के विभिन्न नगरों में अपनी फर्म की शाखाएँ खोलकर उन्होंने समृद्धि एवं प्रसिद्धि हासिल की।
वे तात्कालीन रेल्वे संस्थानों एवं अनेक रियासती राया के खजांची नियुक्त हुए। धोलपुर, भरतपुर, शाहपुरा, ग्वालियर, जोधपुर महाराजाओं से उन्हें बड़ा सम्मान मिला। सन् 1935 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें राय बहादुर की पदवी से सम्मानित किया। वे सन् 1941 में OBE एवं 1944 में Knighthood की उपाधियों से अलंकृत हुए। सन् 1935 से 45 तक वे केन्द्रीय विधानसभा के सदस्य मनोनीत हुए। सन् 1953 में उन्हें भारतीय स्थल सेना का मानद 'कैप्टिन' मनोनीत किया गया।
सेठ भागचन्द राजस्थान के अनेक शैक्षणिक, सामाजिक एवं धार्मिक संस्थानों के सभापति या उपसभापति रहे। दिगम्बर जैन महासभा के तो वे संरक्षक ही थे। उन्होंने समाज में कला और खेलों के विकास हेतु मुक्त हस्त