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________________ जैन-विभूतियाँ 349 88. श्री लालचन्द ढढा (1898-1968) जन्म : फलौदी, 1898 पिताश्री : सुगनमल ढढ़ा दिवंगति : 1968 अरब देशों में एक कहावत है- एक आदमी को समुद्र में डुबा दो तब भी भाग्य ने सहारा दिया तो वह बच निकलेगा और वह भी ढेरों मछलियाँ लेकर। करामात पूर्व जन्मों में अर्जित किए पुण्य फल की है। श्री लालचन्दजी ढढ़ा की कहानी भी "कुछ नहीं' से ''सब कुछ'- अपने अध्यवसाय एवं सौभाग्य से अर्जित करने की कहानी है। ___ 'ढ़ढ़ा' गौत्र मूलत: सोलंकी राजपूतों से नि:सृत है। वे बहादुर और कार्यकुशल होते थे। इनके पूर्वज सारंगदासजी जैसलमेर छोड़कर फलौदी आ बसे। अपने शरीर की मजबूती के कारण सिंध के अमीर से उन्होंने 'ढढ़' का विरुद पाया। इसी कारण उनके वंशज कालान्तर में 'बढ़ा' कहलाये। सन् 1660 में लुंका गच्छीय श्री भागचन्दजी स्वामी के उपदेश से उन्होंने स्थानकवासी सम्प्रदाय की आस्था ग्रहण की। इन्हीं सारंगदासजी के पुत्र रघुनाथदास हुए। उन्हीं के वंशजों में शाह सुगनमल ढढ़ा हुए। सन् 1900 में वे व्यापार के निमित्त मद्रास आए और यहाँ महाजनी कारोबार करने लगे। उनके तीन पुत्र हुए-लक्ष्मीचन्द सौभागमल और लालचन्द। बच्चों की शिक्षा नाम मात्र की हुई। दोनों बड़े भाइयों ने मद्रास में 'केमिस्ट एण्ड ड्रगिस्ट' की एक दूकान पर नौकरी कर ली। उस समय तक परिवार बहुत साधारण स्थिति में था। लालचन्द जब पैतृक निवास फलौदी से मद्रास आए तो भाइयों की सिफारिश पर दुकान मालिक ने लालचन्द को भी रहने, खाने एवं काम करने की इजाजत दे दी। साल के अंत में जब सेलेरी देने का अवसर आया तो दूकान मालिक उन्हें सेलेरी देने
SR No.032482
Book TitleBisvi Shatabdi ki Jain Vibhutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilal Bhutodiya
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2004
Total Pages470
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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