________________
जैन- विभूतियाँ
भाई एक जौहरी के यहाँ . जवाहरात का काम सीख रहे थे। शनैः-शनैः उन्हें मोतियों की परख होने लगी। माणिकचन्द जिज्ञासुवृत्ति के थे । वे जल्दी ही इस विद्या में निष्णात हो गये। वे ईमानदार और सत्यवादी थे। बाजार में इन भाइयों की साख जमने लगी। उनकी उद्यमशीलता रंग लाई। अर्थोपार्जन के साथ ही वे सबके विश्वास - पात्र भी बन गए । संवत् 1924 में उन्होंने अपना स्वतंत्र व्यवसाय प्रारम्भ किया । संवत् 1927 में माणिकचन्द पानाचन्द
वेरी नाम से मुंबई पेढ़ी स्थापित की । प्रामाणिकता उनका मूलमंत्र था । पारिवारिक एक्य एवं परिश्रम से पुण्योदय हुआ । चन्द वर्षो में उनका व्यापार समस्त भारत में अग्रगण्य माना जाने लगा। विदेशों में भी उनके माल की खपत बढ़ी। उनके सत्य निष्ठ व्यवहार के कारण व्यापार चौगुना बढ़ा एवं विपुल धन लाभ भी हुआ ।
333
संवत् 1932 में इंग्लैण्ड और यूरोप में उन्होंने शाखाएँ स्थापित की। चन्द वर्षों में लाखों रुपए के हीरा मोती विदेश भेजने लगे। उनके माल की सुन्दरता एवं चमक अद्वितीय मानी जाती थी।
1
जैसे-जैसे माणिकचन्द जी का वैभव बढ़ा, उनकी दानवृत्ति जागृत हुई। वे विनय एवं सादगी की प्रतिमूर्त तो थे ही, सामाजिक उत्तरदायित्व के प्रति भी सजग थे। अपने सजातीय जैनी भाइयों की सहायता के लिए सदैव तत्पर रहने लगे। समाज के सर्वांगीण विकास के लिए उन्होंने मुक्त हस्त दान दिया। समूचा जैन समाज इससे लाभान्वित हुआ । संवत् 1937 में हीराचन्दजी स्वर्गवासी हुए । उनकी स्मृति में माणिकचन्दजी ने संकल्पपूर्वक धर्मार्थ विशेष प्रवृत्तियाँ प्रारम्भ की। उन्होंने 'जुबली बाग' नाम की आलिशान ईमारत समाज को समर्पित की। हीरा बाग में 'सेठ हीराचन्द गुमानचन्द धर्मशाला' बनवाई। पालीताणा में मंदिर एवं धर्मशालार्थ हजारों रुपयों का दान दिया। इलाहाबाद एवं अहमदाबाद में जैन बोर्डिंग एवं औषधालय के लिए अवदान दिए । सम्मेद शिखर में तीर्थोद्धार के लिए, कोल्हापुर में विद्यामंदिर के लिए, सूरत में कन्याशाला के लिए, रतलाम में बोर्डिंग के लिए, आगरा, जबलपुर व हुबली में बोर्डिंग के लिए दान दिया । संवत् 1956 के छपनिया दुष्काल में पीडा गस्त परिवारों के संकट निवारे ।