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जैन- विभूतियाँ
शहरों में उनकी पेढ़ियाँ थी । सन् 1920 में कामता प्रसाद भी इन व्यवसायों से जुड़े। सन् 1930 में लश्कर विभाग ने भारतीय साहूकारों से नाता तोड़ लिया। तब से लाला प्रागदास ने जमींदारी शुरु की। उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा था। सन् 1948 में उनका देहावसान हो गया। परिवार की जिम्मेदारी कामता प्रसाद के कंधों पर आ पड़ी । कामता प्रसाद सन् 1931 में अलीगंज के आनरेरी मजिस्ट्रेट नियुक्त हुए। वे अलीगंज रहने लगे। सन् 1949 तक वे उस पद पर रहे। सन् 1943 से 1948 तक उन्होंने कलेक्टर का पद भार भी संभाला। सर्वसाधारण ने उनके सेवाभाव की मुक्तकंठ से प्रशंसा की ।
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आपने विद्यालयी नौवीं कक्षा तक शिक्षार्जन कर, घर पर ही प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, उर्दू, गुजराती तथा अंग्रेजी भाषा का गम्भीर अध्ययन/अनुशीलन किया। आपने अपने जीवन में खूब पढ़ा, विचारा और स्वान्तः सुखाय और पर जन हिताय खूब लिखा । बाबूजी बोले बहुत कम, लेकिन अपने जीवन के आखिरी दशक में वह अखिल विश्व जैन मिशन के बड़े-बड़े अधिवेशनों और अहिंसा सम्मेलनों में प्रभावपूर्ण शैली में बोले और देश के उत्तम वक्ताओं की पंक्ति में समादृत हो गए।
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बाबूजी ने अनेक रूपों में लिखा है । वे हिन्दी-अंग्रेजी-ट्रैक्ट-लेखन के जनक माने जाते हैं । गवेषणात्मक आलेखन में आपको महारत हासिल थी। 'गिरनार गौरव', 'उड़ीसा में जैन धर्म', 'कम्पिल कीर्ति', 'भगवान् ऋषभदेव’, ‘भगवान पार्श्वनाथ', 'भगवान महावीर', 'महावीर तथा बुद्ध', ‘दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि', 'आचार्य कुन्दकुन्द की सूक्तियाँ' और 'तीर्थंकर एण्ड दियर टीचिंग' आदि अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ आज भी मील के पत्थर माने जाते हैं। जैन साहित्य तथा इतिहास पर आपका लेखन प्रामाणिक तथा मार्गदर्शक के रूप में समादृत रहा है। बाबूजी ने जैन साहित्य, संस्कृति और इतिहास पर सैकड़ों ट्रैक्ट्स और ग्रन्थों का यशस्वी लेखन किया है। जैन जाति का इतिहास, जैन वीरों का इतिहास, संक्षिप्त जैन इतिहास एवं प्राचीन जैन लेख संग्रह आपके मुख्य ग्रंथ है। इतिहास और साहित्य की शोध-पत्रिकाओं और जर्नल्स में आपके अनेक आलेख