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________________ 273 जैन-विभूतियाँ अपने शोध-प्रबंध 'आचार्य पूज्यपाद एवं सामन्तभद्र'' का वाचन किया। सन् 1972-75 तक वे भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली की संचालक समिति एवं ट्रस्ट के माननीय सदस्य रहे। सन् 1973 में उन्हें उनके ग्रंथ ''गीता वीतराग'' के लिए स्वर्ण पदक प्रदान किया गया। सन् 1973 में 29वें अन्तर्राष्ट्रीय प्राच्य विद्या काँग्रेस के पेरिस में हुए अधिवेशन में भारत के प्रतिनिधि की हैसियत से वे शामिल हुए एवं अपने शोध-प्रबंध "यापनीय संघ' का वाचन किया। सन् 1974 में उन्होंने बेलजियम में आयोजित धर्म एवं शांति के लिए हुई द्वितीय विश्व कान्फ्रेंस में भाग लिया। सन् 1975 में उन्हें मैसूर विश्वविद्यालय द्वारा उनके शोध-प्रबंध "सिद्धसेन का न्यायावतार' के लिए स्वर्ण जयंति पुरस्कार दिया गया। सन् 1925 में भारत के राष्ट्रपति द्वारा स्वतंत्रता दिवस पर उन्हें 'राष्ट्रीय संस्कृत पण्डित' के विरुद से विभूषित किया गया। डॉ. उपाध्ये का सम्पूर्ण जीवन प्राच्य विद्या साहित्य की शोध के लिए ही समर्पित रहा। उन्होंने प्राकृत ग्रंथों के सम्पादन में अधुनातन संसाधनों का प्रयोग किया। इस अभूतपूर्व शोधकार्य के लिए समग्र जैन समाज सदैव उनका कृतज्ञ रहेगा। प्राकृत भाषा एवं जैन साहित्य को उनका शोध-अवदान अविस्मरणीय है। उन्हें वर्तमान का 'कुन्दकुन्द' कहा जाता है। सन् 1977 में शिवाजी विश्वविद्यालय एवं सन् 1980 में मैसूर विश्व-विद्यालय द्वारा उनकी स्मृति में "डॉ. ए.एन. उपाध्ये मेमोरियल लेक्चर्स'' का संयोजन किया गया। सन् 1975 में इस महामनीषी का देहावसान हुआ।
SR No.032482
Book TitleBisvi Shatabdi ki Jain Vibhutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilal Bhutodiya
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2004
Total Pages470
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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