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जैन-विभूतियाँ सक्रिय राजनीति में आना चाहिए।'' जैनेन्द्रजी ने इन्कार कर दिया। वे गाँधीवाद और सर्वोदय दर्शन की गोष्ठियों में प्राय: आमंत्रित रहते थे एवं उसके वैचारिक धरातल को संपुष्ट करने से कभी नहीं चूकते थे। सभी नेता उन्हें समादृत करते एवं एक "संत साहित्यकार" मानते थे। बम्बई में "टैगोर जन्म शताब्दी'' के भव्य समारोह में हुई एक गोष्ठी में मोरावियो जैसे दिग्गज साहित्यकारों के बीच जैनेन्द्र जी धाराप्रवाह अंग्रेजी में बोलेसारा सारस्वत समुदाय सुनकर स्तब्ध रह गया।
जैनेन्द्रजी बड़े भाग्यवान थे। उनकी सुधर्मिणी भगवती देवी ने अंत समय तक उनकी सेवा सुश्रुषा में कोई कसर नहीं रखी। वे अहर्निश उनके निकट रहती। दिल्ली जैसे महानगर में उन्होंने न एक दिन भी बाजार का मशीन पिसा आटा खाने दिया, न धोबी धुला कपड़ा पहनने को दिया। स्वयं तड़के उठकर च घर की सफाई करती और जिस पर गजब यह कि सार्वजनिक, सामाजिक एवं राजनैतिक जीवन में भी भाग लेतीं।
__ जीवन की सांध्य वेला में जैनेन्द्रजी को 'अणुव्रत पुरस्कार' (1985) एवं भारतभारती पुरस्कार से नवाजा गया। भारत सरकार ने उन्हें 'पद्मश्री' से विभूषित किया। साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला। दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र ने उनके लेखन एवं कृतित्व पर डाक्टरेट की। परन्तु हिन्दी के आलोचक कभी उनकी रचनाओं के साथ न्याय नहीं कर पाए। किसी ने उनके ''पात्रों पर कामकुंठा से ग्रसित होने' का आरोप लगाया, किसी ने उन्हें स्पिरिच्युअल मायोपिया का शिकार बताया। पर जैनेन्द्र उन सभी समीक्षाओं से अप्रभावित रहे।
उनके उपन्यास 'त्याग-पत्र' पर एक फिल्म भी बनी, पर असफल रही। दूरदर्शन ने कभी उनकी किसी कृति को धारावाहिक बनाने के लायक नहीं समझा। विडम्बना यह रही कि किसी प्रादेशिक सरकार या संस्थान ने उन्हें सम्मानित नहीं किया। छोटे-मोटे लेखक का भी अभिनन्दन-ग्रंथ है पर जैनेन्द्रजी के जीवित रहते उनका कोई अभिनन्दनग्रंथ नहीं निकला जबकि उनके उपन्यासों का अनुवाद विश्व की 34