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जैन-विभूतियाँ
259 एक सामान्य परिवार में पली-पोसी चवदह वर्षीय कन्या के अन्तर में क्रांति की इस छुपी चिंगारी को महात्मा गाँधी ने पहचाना एवं उनकी प्रेरणा पाकर यह बालिका सदैव के लिए सामाजिक उन्नयन के लिए समर्पित हो गई। कैशौर्य आते-आते बाल विधवा हो जाने की नियति को निज के पुरुषार्थ एवं सामाजिक क्रांति के सूत्रधार श्री भंवरमलजी सिंघी के संसर्ग ने पराजित कर दिया। सुशीला जी ने उनकी सहधर्मिणी बनकर सामाजिक चेतना के नये युग का सूत्रपात किया।
16 अप्रैल, 1946 को श्री भंवरमलजी सिंघी से उनका पुनर्विवाह हुआ। भंवरमलजी का यह द्वितीय विवाह था। प्रथम विवाह से उनके एक पुत्र श्रीकान्त की उम्र उस समय 8 साल थी। श्रीकान्त सुशीलाजी की ही देखरेख में बड़े हुए। सिंघीजी से विवाहोपरांत सुशीलाजी बड़े उत्साह से कलकत्ता की संस्कृतिक गतिविधियाँ में भाग लेने
लगी। सन् 1952 में पर्दा एवं दहेज विरोधी अभियानों में वे सदा अग्रणी रही। मारवाड़ी सम्मेलन के मंच से सामाजिक सुधारों के लिए सदैव संघर्षरत रहते-रहते ही कलकत्ता यूनिवर्सिटी से उन्होंने एम.ए. किया। राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़कर काँग्रेस के अधिवेशनों को सम्बोधित किया। सन् 1958 से 1972 तक अखिल भारतवर्षीय परिवार नियोजन कौंसिल एवं कोलकाता की महिला सेवा समिति की मानद मंत्रिणी रही। उनका कार्यक्षेत्र मारवाड़ी समाज या कोलकाता तक ही सीमित नहीं रहा, पुरुलिया के आदिवासी अंचलों, कोयला खानों, चाय बागानों एवं कोलकाता के स्लम क्षेत्रों के मजदूर परिवारों के शैक्षणिक एवं सामाजिक विकास के
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