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जैन- विभूतियाँ
समाज अवश्य उनकी सुरक्षा एवं सुश्रुषा का प्रबन्ध करेगा। वे रुग्ण रहने लगी थी। उन्होंने जैन समाज के कर्णधारों से अनुनय विनय की ताकि असहायावस्था में उनकी सुचारु देखभाल का प्रबंध हो सके । परन्तु समाज के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। समाज की इस उदासीनता से निराश होकर वे ग्वालियर के कैथोलिक चर्च में सन् 1962 में फिर से कैथोलिक धर्म में दीक्षित हुई। कैथोलिक धर्मावलम्बियों ने ही अंतिम समय तक उनकी सेवा सुश्रुषा की। वे सन् 1980 में ग्वालियर में दिवंगत हुई। इस तरह अहसान फरामोशी की इस अधर्म कथा का अंत हुआ ।