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जैन- विभूतियाँ
सी.पी.सी. के अनुसार सब जज हजारीबाग की कचहरी में नालिस पेश की। मुद्दई का दावा था कि "श्री सम्मेद शिखर जी निर्वाण क्षेत्र स्थित टौंक, मन्दिर, धर्मशाला सब श्वेताम्बर संघ द्वारा निर्मित हुई है। अत: दिगम्बर आम्नायी जैनियों को श्वेताम्बर आम्नाय के विरूद्ध और श्वेताम्बर संघ की अनुमति बिना प्रक्षालन पूजा आदि करने का अधिकार नहीं है; नवे धर्मशाला में ठहर सकते हैं। "
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यह मुकदमा साढ़े चार वर्ष से ऊपर चला । उभय पक्ष का कई लाख रुपया खर्च हुआ । अन्तिम निर्णय सब जजी से 31 अक्टूबर, 1916 को हुआ।
इस निर्णय के अनुसार ऋषभदेव, बासुपूज्य, नेमिनाथ, महावीर स्वामी - चार तीर्थंकरों की टौंकों के अतिरिक्त अन्य सब टौंकों में प्रतिवादी दिगम्बरी संघ का प्रक्षालन - पूजा का अधिकार निश्चित पाया गया । दिगम्बरी समाज के यात्री प्रात: जाते हैं और सूर्यास्त से पहले वापस लौट आते हैं। वह पर्वत राज पर अन्न-जल नहीं लेते, न वहाँ ठहरते हैं। धर्मशाला से उनको कुछ मतलब ही नहीं होता ।
हजारीबाग सबजज के निर्णय के विरुद्ध उभय पक्ष ने उच्च न्यायालय, पटना और प्रीवी काउन्सिल, लन्दन में अपील की । उभय पक्ष की दोनों अपीलें खारिज हुई।
(ख) इंजक्शन केस - "पूजा केस" के निर्णय के पश्चात् जिसमें श्वेताम्बर समाज को यथेष्ट सफलता नहीं प्राप्त हुई, सम्मेदाँचल तीर्थराज के श्वेताम्बराम्नायी प्रबन्धकों ने यह प्रयत्न किया कि श्री कुंथनाथ की टौंक के पास जहाँ से मधुवन के रास्ते से तीर्थराज की यात्रा प्रारम्भ होती है, एक बड़ा फाटक खड़ा करें, जिसमें यात्रियों को यात्रा के लिए श्वेताम्बर समाज की दया - दृष्टि पर निर्भर रहना पड़े। उस फाटक के पास तलवार, बंदूक आदि हथियार बन्द सिपाही भी रक्खे जावें । तीर्थ राज पर बिजली गिरने से पूज्य चरणालय जिनको "टौंक" कहा जाता है टूट जाती हैं और नूतन चरण स्थापना की आवश्यकता होती है। ऐसे नवीन चरण श्वेताम्बर समाज के प्रबन्ध से इस रूप में स्थापित किये गये