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जैन-विभूतियाँ
181 मुंबई आए। यहीं सड़क पर कॉर्पोरेशन के बिजली के खम्भे के नीचे बैठकर बालक ने मेट्रिक पास की। इनकी ग्रहण एवं स्मरण शक्ति बड़ी तेज थी। इन्होंने संस्कृत, प्राकृत, अंग्रेजी भाषाओं का अभ्यास किया। साथ ही जैन दर्शन एवं योग विषयक साहित्य का अध्ययन किया। जन्मभूमि की साहसिकता, सौराष्ट्र की जिज्ञासावृत्ति एवं मुंबई की विशालता-इस त्रिवेणी का संगम इनके जीवन में फलित हुआ। उन्होंने अध्यापन प्रारम्भ किया। विविध विषयों के ज्ञान, विचारों को सुंदर रीति से संप्रेषित करने की क्षमता ने उन्हें विद्वानों के समागम में 'पंडित लालन' नाम से विख्यात कर दिया। पाश्चात्य दर्शन एवं थियोसोफी के विशिष्ट ज्ञान ने उन्हें लोकप्रिय बना दिया। उनके प्रवचन सुनने के लिए विपुल मेदिनी लालायित रहती थी।
सन् 1877 में उनका विवाह जेठाभाई हंसराज की पुत्री मोंधी बाई से हुआ। वे अपना समग्र जीवन सरस्वती की आराधना में समर्पित करने का संकल्प कर चुके थे। मोंधी बाई की कुक्षि से एक बालिका का जन्म हुआ। बड़ी होकर वह ब्याह दी गई परन्तु विधि को कुछ और ही मंजूर था। उनकी असमय मृत्यु हो गई। माता-पिता को जबरदस्त आघात लगा। फतेहचन्द भाई वैसे भी गार्हस्थ्य की तरफ से उदासीन थे। मात्र 39 वर्ष की वय में पति-पत्नि ने आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत लिया।
सन् 1895 में शिकागो में आयोजित विश्व धर्म-परिषद् में आपने श्री वीरचन्द राघवजी गाँधी के साथ जैन श्वेताम्बर कांफ्रेंस का प्रतिनिधित्व किया। वे अमरीका में साढ़े चार वर्ष रहे। वहाँ 'महावीर ब्रदरहुड' नामक संस्थान स्थापित किया। जैन धर्म के सिद्धांतों के प्रसारार्थ उनका यह अवदान अविस्मरणीय रहेगा। हजारों भारतीय एवं स्थानीय अमेरिकन भाइयों में अहिंसा और सार्वभौम सौहार्द स्थापित करने में इस संस्थान का प्रमुख हाथ था। सन् 1936 में लंदन (इंग्लैण्ड) में आयोजित विश्व धर्म परिषद में पुन: उन्होंने आचार्य विजयवल्लभसरि के प्रतिनिधि रूप में भाग लिया। इस बार भी वे सात महीने लगातार जैन धर्म एवं योग साधना के प्रसार हेतु विदेशों में भ्रमण करते रहे।