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________________ 158 जैन-विभूतियाँ सिंह जी ने यह काम आपको ही सौंप दिया। जब उन्होंने 'जेसोर' में सूगर मील की प्रतिष्ठापना की तो वहाँ के प्रमुख प्रबन्धक गोपीचन्द जी के सहायक रूप में भी आपको ही भेज दिया। वह जमाना स्वदेशी आन्दोलन का था। अत: यही आशा थी कि सूगर मील सफलता अर्जित करेगी पर वह हो न सका। मिल उठ जाने पर आपको पुन: अजीमगंज लौट आना पड़ा। कुछ दिनों पश्चात् आप इस काम को छोड़कर पाट की दलाली करने लगे। किन्तु आपकी रुचि इस ओर नहीं थी। इसी समय नाहटा परिवार के पूरणचन्दजी एवं ज्ञानचन्द जी ने विलायत जाकर रहने का निश्चय किया। अत: उनको फर्म की देखभाल के लिए एक योग्य विश्वासी कर्मचारी की आवश्यकता पड़ी। श्यामसुखाजी की ख्याति इस परिवार को ज्ञात थी। इन्होंने आपसे इन कार्यभार को ग्रहण करने का अनुरोध किया। आपने इस कार्यभार को ग्रहण ही नहीं किया बल्कि 27 वर्षों तक इसी में संलग्न रहते हुए ही अवकाश प्राप्त किया था। नाहटा परिवार का कार्यभार लेने के पश्चात् अपना परिवार अजीमगंज रहने पर भी आपको अधिक समय कलकत्ता एवं अन्य मुकामों में ही बिताना पड़ा। परन्तु ऐसी परिस्थितियों में भी आपने लिखना-पढ़ना नहीं छोड़ा। आपके सहपाठी थे बंगाल के भावी प्रख्यात शिशु साहित्य सम्राट श्री दक्षिणा रंजन मित्र मजुमदार। इन्हीं की प्रेरणा से श्यामसुखा जी ने बंगला में लिखना प्रारम्भ किया था। जब दक्षिणा रंजन बाबू ने 'सुधा' मासिक पत्रिका प्रकाशित की तो श्यामसुखा जी को भी इसमें लिखने के लिए उत्साहित किया। आपने 'दीपावली', 'प!षण', 'श्री पूज्य जी का आगमन' आदि शीर्षकों से लेख लिखकर 'सुधा' में प्रकाशित कराए। नाहटा परिवार के ग्रंथागार में, धर्म सम्बन्धी ग्रन्थों का अच्छा संग्रह था, पूरणचन्द जी वहाँ से ग्रन्थ लाकर पढ़ते थे। 18 वर्ष की उम्र में ही आपने श्री आत्मारामजी विरचित 'जैन तत्त्वादर्श' एवं 'अज्ञान तिमिर भास्कर' पढ़ लिया था। इन्हीं ग्रंथों से आपको आगे चलकर जैन शास्त्रों को पढ़ने के लिए उबुद्ध किया। आत्मारामजी के प्रति आपकी जो गहरी
SR No.032482
Book TitleBisvi Shatabdi ki Jain Vibhutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilal Bhutodiya
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2004
Total Pages470
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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