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जैन-विभूतियाँ टीकाएँ लिखी परन्तु वे सभी अप्राप्त हैं। वीरसेन की टीका का नाम "धवला'' है जिसे बाट ग्राम में रहकर शक सं. 738 (ई. 816) में पूर्ण किया। यह बहत्तर हजार श्लोक प्रमाण हैं। इसे मध्यकाल में मात्र गृहत्यागी मुनियों के पढ़ने की वस्तु माना जाता था। इसीलिए परगामी विद्वान नेमिचन्द सिद्धांत चक्रवर्ती ने 'गोम्मटसार' लिखा। धीरे-धीरे षट्खण्डागम की प्रतियाँ तालों में बन्द हो गई। इसे फिर से प्रकाशित कर लोकप्रिय आगम ग्रंथ बनाने का श्रेय प्रो. हीरालाल को ही है।
__ 'धवला' का द्वितीय भाग सन् 1940 में प्रकाशित हुआ। तीसरा सन् 1941 और चौथा 1942 में। इस बीच बाधा कारक भी प्रकट होते रहे। पं. मक्खनलाल ने "सिद्धांत शास्त्र और अध्ययन का अधिकार'' पुस्तक लिखकर 'धवला' के प्रकाशन को रोकने का भी प्रयत्न किया। परन्तु हीरालालजी तनिक न डिगे। ग्रंथ का सम्पादन इतना शोधपूर्ण एवं उच्च स्तरीय था कि सारा विरोध स्वयं समाप्त हो गया। पांचवे से अंतिम सोलहवें भाग का प्रकाशन क्रमश: 1942 से 1958 के बीच हुआ। इस तरह कुल 20 वर्षों के सत्प्रयास से प्रो. हीरालाल यह अमृत-ग्रंथ जैन समाज को समर्पित कर धन्य हुए और धन्य हुआ जैन समाज।
__ इस बीच उन्हें अप्रभंश भाषा और साहित्य पर मौलिक लेखन के लिए डी.लिट. की उपाधि से सम्मानित किया गया। तब से वे डॉ. हीरालाल जैन के नाम से प्रसिद्ध हुए। सन् 1944 में उनका स्थानान्तरण अमरावती से नागपुर के "मारिस महाविद्यालय'' में हो गया। सरकारी सेवा से निवृत्ति तक पूरे दस वर्ष उन्होंने यहीं गुजारे। नागपुर विश्वविद्यालय की तरफ से उन्हें अनेक उत्तरदायित्व सौंपे गये जिन्हें डॉ. जैन ने दक्षता से निष्पन्न किया।
सन् 1948 का वर्ष डॉ. जैन के लिए शुभ नहीं रहा। उनकी माताजी स्वर्गस्थ हो गई। दुर्भाग्य वश पौत्र बीमार पड़ा, उसका भी शरीरांत हो गया। डॉ. जैन अत्यंत दु:खी हो गये। तभी एक पुत्र भाग्य को दोष देते हुए सेना में भरती हो गए। डॉ. जैन को हार्दिक विषाद् ने घेर लिया। सरस्वती उपासना को समर्पित जीवन सदैव ही कष्ट साध्य होता