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जैन-विभूतियाँ in India' की नींव रखी। इसी यात्रा में उन्होंने इंग्लैंड व अन्य देशों का भी दौरा किया।
इंग्लैंड में जैन धर्म के जिज्ञासु लोगों के लिए उन्होंने "जैन लिटरेसी सोसाईटी'' की स्थापना की। इस प्रवास के दौरान उन्होंने कुल 535 व्याख्यान दिए। लन्दन के हर्वर्ड वोरन ने वीरचन्द भाई की प्रेरणा से जैन धर्म अंगीकार किया। वीरचन्द भाई के हृदय में करुणा अपार थी। सन् 1896-97 के विदेशी दौरे में एकत्रित हुए रुपये से खरीद कर अनाज का एक पूरा जहाज भारत भेजा था जो यहाँ गरीबों में वितरित हुआ।
सन् 1895 में पूना में आयोजित इंडियन नेशनल कांग्रेस के अधिवेशन में वीरचन्द भाई ने मुंबई का प्रतिनिधित्व किया। वे "अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्य परिषद्'' में समग्र एशिया के प्रतिनिधि रूप में सम्मिलित हुए।
वीरचन्द भाई के मौलिक एवं प्रवचन साहित्य के 8 प्रकाशित खण्ड हैं-जैन दर्शन, कर्मदर्शन, योग दर्शन, ईसा मसीह, भारतीय दर्शन चयनित व्याख्यान (सभी अंग्रेजी में) एवं राघवाकृत वाणी एवं संवीध ध्यान (गुजराती)। उनके सभी अप्रकाशित कागजात अब श्री महावीर जैन विद्यालय की थाती हैं। उनका वाङ्मय जैनजगत को अत्युत्तम अवदान है।
सन् 1896 में वीरचन्द भाई ने पुन: विदेशों के निमंत्रण पर अमरीका, इंग्लैंड, जर्मनी व फ्रांस का दौरा किया। अनेक जगहों पर उनके भाषण आयोजित किए गए। उन्हीं दिनों लंदन रहकर आपने बैरिस्टरी पास की। दुर्भाग्यवश वहाँ आपका स्वास्थ्य बिगड़ गया। भारत लौटने के कुछ ही दिन बाद सन् 1901 में मात्र 36 वर्ष की अल्पवय में वीरचन्द भाई मुंबई में प्रभु को प्यारे हो गए। उनके देहावसान से जैनसमाज की अपूरणीय क्षति हुई। उल्लेखनीय है कि शिकागो धर्म परिषद् को उनके साथ ही संबोधित करने वाले भारत के महान मनीषी स्वामी विवेकानन्द का भी 40 वर्ष की अल्पायु में सन् 1902 में देहांत हुआ था। जैन समाज का यह दुर्भाग्य है कि वीरचन्द भाई की अपरिमित सेवाओं के स्मरणार्थ हम कोई उपयुक्त संस्थान निर्मित नहीं कर सके।