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होती थी। भावार्थ- उन्हें चाहे जहाँ धन दिखाई देना आदि अनेक आश्चर्य स्वयं हो जाते थे। हर्षमय सर्व जीव
आधयो नैव जायन्ते व्याधतो व्यापयन्ति न ।
ईतयश्चाज्ञया भर्तुर्ने ति तद्देशमण्डले ॥16॥ जिस देश में भगवान् का विहार होता था उस देश में भगवान् की आज्ञा न होने से ही मानो किसी को न तो आधि-व्याधि-मानसिक और शारीरिक पीड़ाएँ होती थीं और न अतिवृष्टि आदि ईतियाँ ही व्याप्त होती थीं।
अन्धाः पश्यन्ति रूपाणि शृण्वन्ति वधिराः श्रुतिम् ।
मूकाः स्पष्टं प्रभाषन्ते विक्रमन्ते च पङ्गवः ॥ 77॥ वहाँ अन्धे रूप देखने लगते थे, बहरे शब्द सुनने लगते थे, गंगे स्पष्ट बोलने लगते थे और लँगड़े चलने लगते थे । सुखदायी प्रकृति
नात्युष्णा नातिशीताः स्युरहोरानाविवृत्तयः।
अन्यच्चा,शुभमत्येति शुभं सर्व प्रवर्धते ॥ 78॥ वहाँ न अत्यधिक गरमी होती थी, न अत्यधिक ठण्ड पड़ती थी, न दिन-रात का विभाग होता था, और न अन्य अशुभ कार्य अपनी अधिकता दिखला सकते थे। सब ओर शुभ ही शुभ कार्यों की वृद्धि होती थी।
अस स्थावरकाः सर्वे सुखं विन्दन्ति देहिनः ।
सैषा विश्वजनीना हि विभुता भुवि वर्तते ॥ 85॥ भगवान् के विहार-क्षेत्र में स्थित समस्त त्रस, स्थावर जीव सुख को प्राप्त हो रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि संसार में विभुता वही है जो सबका हित करने वाली हो।
भूवधूः सर्व सम्पन्नसस्यरोमाञ्चकञ्चुका।
करोत्यम्बुज हस्तेन भर्तुः पावग्रहं मुदा ॥19॥ उस समय सर्व प्रकार की फली-फूली धान्यरूपी रोमांच को धारण करने वाली पृथ्वीरूपी स्त्री कमलरूपी हाथों के द्वारा बड़े हर्ष से भगवान् रूपी भर्तार के पादमर्दन कर रही थी।
जिनार्कपाद संपर्क प्रोत्फुल्लकमलावलीम् ।
प्रथयत्युद्वहन्ती चौरस्थायिसरसीश्रियम् ॥ 80॥ जिनेन्द्र रूपी सूर्य के पादरूपी किरणों के सम्पर्क से फूली हुई कमलावली को धारण करने वाला आकाश उस समय चलते-फिरते तालाब की शोभा को विस्तृत कर रहा था ।
सर्वेऽत्युक्ताः समात्मानः समहण्टेश्वरेक्षिताः। ऋतवः सममेधन्ते निर्विकल्पा हि सेशिता ॥ 81॥