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________________ [ 92 ] वैभवी विजयाख्यातिवैजयन्ती पुरेडिता । राजते त्रिजगन्नेत्रकुमुदामलचन्द्रिका ॥ 69 ॥ आगे-आगे भगवान् की विजय पताका फहराती हुई सुशोभित थी जो मानो ऐसी जान पड़ती थी कि तीन जगत् के नेत्ररूपी कुमुदों को विकसित करने के लिए निर्मल चांदनी ही हो । बिहारावसर में नृत्य एवं स्तुति भुवः स्वर्भू निवासिन्यो भुवि यद्व्यन्तरा स्थिताः । नरीनृत्यन्ति देव्योऽग्रे प्रेमानन्दरसाष्टकम् ॥ 70 u जो देवियाँ अधोलोक और ऊर्ध्वलोक में निवास करती हैं तथा पृथिवी पर नाना स्थानों में निवास करने वाली हैं वे भगवान् के आगे प्रेम और आनन्द से आठ रस प्रकट करती हुई नृत्य कर रही थीं । आमन्द्रमधुरध्वानाव्याप्त दिग्विदिगन्तरा । धीरं नानद्यते नान्दी जित्वा प्रावृङ्घनावलीम् ॥ 71 ॥ जिसने अपनी गम्भीर और मधुर ध्वनि से समस्त दिशाओं और विदिशाओं के अन्तर को व्याप्त कर रखा था ऐसी नान्दी ध्वनि ( भगवत्स्तुति की ध्वनि) वर्षा ऋतु की मेघावली को जीतकर बड़ी गम्भीरता से बार-बार हो रही थी । धर्म चक्री की धर्म विजय का धर्म चक्र - जितार्को धर्मचक्रार्कः सहस्रारांशुदीधितिः । याति देवपरीवारो वियतातितमोपहः ॥ 72 ॥ जिसने अपनी प्रभा से सूर्य को जीत लिया था, जो हजार अररूप किरणों से सहित था, देवों के समूह से घिरा हुआ था और अत्यधिक अन्धकार को नष्ट कर रहा था ऐसा धर्मचक्र आकाश मार्ग से चल रहा था । शरणक्षता की शरण में आओ लोकनामेक नाथोऽयमेतत नमतेति च । घुष्यते स्तनितैरग्रैर्घोषणा भयघोषणा | 73 ॥ आगे-आगे चलने वाले स्तनितकुमार देव अभय घोषणा के साथ-साथ यह घोषणा करते जाते थे कि ये भगवान् तीन लोक के स्वामी हैं, आओ, आओ और इन्हें नमस्कार करो । सर्वाश्चर्य की प्राप्ति देवयान्नामिमां दिव्यामन्वेत्य परमाद्भ ुताम् । अद्भ ुतान्वर्थ दृष्ट्यादिसर्वाण्य सुभूतां भुवि ॥ 75 ॥ जो जीव अनेक आश्चर्यों से भरी हुई भगवान् की इस दिव्य यात्रा में साथसाथ जाते थे, पृथिवी पर उन्हें अर्थ-दृष्टि को आदि लेकर समस्त आश्चर्यों की प्राप्ति
SR No.032481
Book TitleKranti Ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanak Nandi Upadhyay
PublisherVeena P Jain
Publication Year1990
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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