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शास्त्रकारों ने निमित्तों से दूर रहने का विधान किया है। लघु पापों से भी डरते रहे
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस प्रकार दीर्घ पापों से सचेत रहना चाहिये, उसी प्रकार लघु पापों से भी इतना ही डरना चाहिये।
___ जो व्यक्ति लघु पापों को गौण मानकर उनकी उपेक्षा करते हैं, तो प्राय: भारी पाप करनेवाले बने बिना नहीं रहते।
नौका में पड़े छोटे छिद्र की भी यदि उपेक्षा की जाये तो वह सम्पूर्ण नौका को डुबा देता है। तनिक क्रोध करने से क्या हुआ?
तनिक काम-राग से उस स्त्री को देखने से क्या अपराध हुआ? तनिक अभिमान करने से कौनसा पहाड़ टूट पड़ा?
आत्म-कल्याणार्थी व्यक्ति के लिये इस प्रकार के विचार अवश्य घातक हैं। स्मरण रहे कि छोटे से घाव की उपेक्षा करें तो वह अत्यन्त बड़े गुमड़े का रूप धारण करके प्राणघातक भी हो सकता है और छोटी सी आग की चिनगारी समस्त नगरी को जला देने में समर्थ है।
नीतिशास्त्र का कथन है कि, "उगते शत्रु और उगते रोग को तुरन्त दबा देना चाहिये," इसका अर्थ यह है कि शत्रु को छोटा अथवा निर्बल समझ कर उसकी उपेक्षा नहीं की जाती। रोग अल्प हो तो भी उसके प्रति असावधानी नहीं रखी जाती।
इसी प्रकार से जब जब लघु पाप जीवन में प्रविष्ट हो रहा हो, तब ही यदि उसे दबा दिया जाये तो दीर्घ पाप जीवन को दूषित नहीं कर सकता।
___ ज्वर यदि थोड़ा थोड़ा चढ़ता हो और उसकी उपेक्षा की जाये तो वह जीर्ण ज्वर देह में घर करके समस्त देह का स्वास्थ्य नष्ट करने में समर्थ हो जाता है। अल्प पाप भी भयंकर है
इस कारण ही अल्प और लघु समझ कर उसकी उपेक्षा नहीं होती। सत्य बात तो यह है कि 'अल्प' होने के कारण ही उसके प्रति हमें अधिक गम्भीर हो जाना चाहिये।
मन का पाप सामान्यत: भयंकर नहीं माना जाता। उसका प्रायश्चित भी अल्प होता है, फिर भी महाराजा कुमारपाल ने मन के पाप को अल्प और लघु नहीं मानकर उसे ही भयंकर माना और इस कारण उन्होंने अभिग्रह लिया कि यदि मझसे मनसे कोई पाप होजाये तो मैं उपवास करूँगा और यदि वही पाप देह से हो जाये तो प्रायश्चित के रूप में एकासणा (एक समय भोजन) करूँगा।
उनके ऐसा करने का कारण यह है कि वे जानते थे कि मन का अल्प अथवा लघु माना जाने वाला पाप ही जब उपेक्षित होता है तब उसमें से देह का 'दीर्घ' पाप उत्पन्न हो जाता है। अत: जब पाप
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