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जिसके दिल में श्री नवकार, उसे करेगा क्या संसार?
था, वह इस क्षण मिलाया और उन्होंने विचार किया कि, अब इन दवाओं को समुद्र में फेंककर, महामंत्र की गोद में जीवन रखकर शान्ति-समाधि से मरना क्या गलत है? जीवन में जो शान्ति समाधि स्वप्न में भी नहीं देखी थी, उसे मृत्यु के समय प्राप्त करने हेतु वे मैदान में डट गये।
25 फरवरी 1950 का दिन, जैसे मौत का संदेश लेकर आया है, ऐसा सबको लगा । रतनचन्द का गला फूलकर इतना बड़ा हो गया था कि पानी की एक बूंद भी अंदर नहीं जाये और प्यास तो ऐसी लगी थी कि जैसे पूरा सरोवर ही पी जाये। मुम्बई के प्रसिद्ध कैन्सर निष्णात डॉ. भरुचा को यह संकेत अन्तिम समय के लगते ही उन्होंने यह बात नजदीक के संबंधियों को बता दी। रतनचन्द को भी इस संदेश की भनक आ गयी। डॉक्टरों के विदाय होते ही उन्होंने घटस्फोट करते हुए कहा,
"ये सब दवाएं समुद्र में फेंक दो! मेरे मुंह पर लगी यह सब पाईपलाइनें (नलियां) कचरे के ढेर पर फेंक दो! दवा की एक बोतल की भी इस कमरे में अब आवश्यकता नहीं है। मैं आज तक शान्ति-समाधि से जीवन जीने में असफल रहा, किंतु अब मुझे इस असफलता की आंधी में फंसकर मृत्यु को नहीं बिगाड़ना है । मेरी इच्छा है कि अब महामंत्र की गोद में जीवन समर्पित कर शान्ति से मरना ! मैं अब घड़ी दो घड़ी का मेहमान हूँ। इसी कारण इस कमरे में मेरी अन्तिम आराधना में विक्षेप डालने कोई नहीं आये, ऐसी मेरी भावना है। सुना है कि नवकार की निष्ठा की रक्षा जो करता है, उस नवकार निष्ठ आत्मा की रक्षा भी कोई अगम्य तत्त्व करता ही है। अब शायद यह शैय्या मेरी अन्तिम शैय्या बन जाये, तो अभी से ही सभी के साथ "खामेमि सव्वजीवे" और "मित्ति मे सव्वभूएसु" का संदेश सुना देता हूं। यदि जीवित रहा, तो बाद में इससे भी ज्यादा हंसते ह्रदय से मिलूंगा और मृत्यु अनिवार्य हुई तो, जब ऋणानुबंध जुड़ेगा, तब फिर मिला जायेगा ।
रतनचन्द का परिवार रोगी के इस अरमान को अमल में लाने हेतु कमरे के बाहर चिंतित चेहरे से बैठ गया । दवाइयों के भूत-प्रेत एवं नलियों
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