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जिसके दिल में श्री नवकार, उसे करेगा क्या संसार ?
भोजन से भरा प्याला भर खाना मांगने जैसा है। प्रसन्न हुआ चक्रवर्ती तो भिखारी की पूरी झोंपड़ी को ही सोने से भरने में समर्थ है, उसके पास अपना प्याला झूठे भोजन से भरने की मांग की जा सकती है क्या ? इसी प्रकार महामंत्र का प्रभाव तो, जिस में से समग्र रोग-दुःख उपाधि एवं संकट पैदा होते हैं, उस भवरोग को ही जड़ से उखाड़ने में समर्थ है, इसलिए उसके आगे शरीर के ही सामान्य दुःख- रोग को दूर करने के लिए रोने की पागलता की जा सकती है क्या? इस सत्य घटना का सम्बन्ध रतनचन्द हेमचन्द नाम के एक व्यक्ति के साथ जुड़ा हुआ है। सन् 1950 की यह घटना है। तब किसी कमनसीब पल में रतनचन्द हेमचन्द के गले पर एक गांठ दिखाई दी। थोड़े ही समय में इस गांठ का निदान 'कैन्सर" के रोग के रूप में हुआ। कैंसर अर्थात केन्सल । रतनचन्द की आंखे भौंचक्की रह गयीं। मानो उसे मध्याहन में तारे दिखाई देने लगे। जीवन में धर्म की आराधना करने का जिसने लक्ष्य रखा हो, उसकी ही रक्षा करने के लिए ऐसी आपत्ति में धर्म हाजिर होता है। रतनचन्द के जीवन में धर्म के नाम पर शून्य था, जिसके कारण उनकी दौड़ दवा एवं दवाखानों (अस्पतालों) की ओर चली, किंतु जैसे दवाइयां लेते गये, कैन्सर की गांठ बढ़ती गई।
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भारत के सभी ख्यातिप्राप्त डॉक्टरों के सम्पर्क का परिणाम जब शून्य आया, तब रतनचन्द के जीने की इच्छा उसे अमेरिका तक ले गयी और वहां पहुँचकर उन्होंने इलाज करवाये। इन उपचारों के पीछे उन्होंने नौ लाख जितनी बड़ी राशि पानी की तरह बहायी, फिर भी जो फलश्रुति आई, उसे देखकर जीने की सभी आशाएं छोड़कर रतनचन्द भाई पुनः मुम्बई आये ।
मुम्बई आगमन के बाद कोई अजीब समय आया और शरणदाता तत्त्व के रूप में महामंत्र पर रतनचन्द की दृष्टि स्थिर हुई। आज तक नवकार तो बहुत गिने थे, नवकार के महिमा के प्रति आज तक सुना भी बहुत था, किंतु उसमें श्रद्धा-विश्वास का भाव आज तक नहीं मिलाया
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