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- जिसके दिल में श्री नवकार, उसे करेगा क्या संसार? के भंवर में फंसे मेरे जीवन को टर्निंग पोइंट प्राप्त हुआ और मैं आज प्रभुशासन की यथाशक्ति आराधना द्वारा भवसागर पार करने के लिए उद्यमशील बना हूँ, यह सब प्रभाव वास्तव में साधर्मिक सुश्राविका रूप धर्मपत्नी मंजुला का है, यह बात निर्विवाद है।
फिर भावी के संकेत अनुसार ममत्व के कारण मूर्तिपूजक की कन्या कैसे लें? यह प्रश्न उग्र होने के बावजूद मेरे भावी पुण्योदय के कारण मुझे ऐसा निर्णय लेने की अंतःस्फुरणा हुई कि "बस शादी करुंगा तो इसी के साथ ही''। अंत में मेरी इच्छा माता के वात्सल्य के कारण पूरी हुई।
जिसके परिणामस्वरूप मुझे मेरे जीवन के विकास में कम होते हए तत्त्वों की पूर्ति के लिए मौका आकस्मिक रूप से मिला!!!
यह बात आगे दी गई मेरे जीवन की घटना से ज्यादा स्पष्ट होगी। समय के प्रवाह के साथ मैंने 22 वर्ष की चढ़ती हुई युवावस्था में M.B.B.S. होकर M.D (Part I) सन् 1953 में पास की। इस समय माताजी के अत्यन्त आग्रह से सन् 1954 में मंजुला के साथ मेरा विवाह हुआ। नवपरिणीता के रूप में आई मंजुला ने सुश्राविका के रूप में फर्ज समझकर मेरे जीवन को संस्कार की दिशा में मोड़ने के लिए मेरे मनोविज्ञान का अभ्यास सजगता से किया।
उसने मेरी इच्छा और प्रवृत्ति के अनुकूल रहकर M.D (Part II)में अधिक अच्छे गुणांकों से उत्तीर्ण होने में मुझे बहुत सहयोग दिया। (सन् 1956 में)
मैंने सामान्य रूप से दुर्लभ गिनी जाती M.R.C.P. (लंदन की) डिग्री प्राप्त करने की तमन्ना पूरी करने के लिए इंग्लैण्ड जाने की बात कटम्बीजनों के समक्ष पेश की, तो सभी ने आर्थिक रूप से, सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ने आदि के कारण मेरी बात मंजूर की, किंतु मेरे जीवन की सच्ची प्रहरी मेरी माँ ने विरोध किया। मुंबई जैसी मोहमयी नगरी में संस्कारों का निकंदन होने से भयभीत (जो मेरे जीवन में हकीकत में घटित हुई थी) मेरी माँ ने सोचा कि, 'मेरी कुक्षि से अवतरित संतान ज्यादा पैसे कमाकर शायद दुनिया में प्रसिद्धि प्राप्त कर दे या फोरेन रिटर्न |
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